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प्रभावित होकर राजनीतिज्ञ कृष्ण द्वारा प्रस्तुत की गयी कूटनीतिका भी चित्रण आया है । श्रीकृष्णको कूटनीतिके फलस्वरूप ही नेमिनाथ विरक्त होते हैं । विलखती हुई राजुलके आँसुओंका प्रभाव भी उनपर नहीं पड़ता । कविने सभी मर्मस्पर्शी कथांशोंका उद्घाटन किया है। अन्तमें इस चरितको मोक्षप्रद बताया गया है । लिखा है
यस्योपदेशवशतो जिनपुगवस्य
नेमिपुराणमतुलं शिवसौख्यकारी, चक्र मयापि मतितुच्छतयात्र भवत्या,
कूर्यादिदं शुभमतं मम मंगलानि ।। सुदर्शनचरित–सुदर्शनचरितके रचयिता यद्यपि आचार्य विद्यानन्दि हैं । पर एकादश अधिकारके अन्तमें ब्रह्मनेमिदत्तका नाम आया है, तथा
गुरूणामुपदेशेन सच्चरित्रमिदं शुभम् ।
नेमिदत्तो व्रती भक्त्याभावयामास शर्मदम् ।। इस पद्यमें 'भावयामास' पद आया है, जिसका अर्थ, प्रकट किया, प्रदर्शित किया या पालन-पोषण किया अथवा मनन द्वारा पावन किया, किया है। अतएव यहाँ प्रकट किया था निर्मित किया यह अर्थ लेनेसे विरोध आता है। जिसका समाधान कुछ विद्वान यह कह कर करते हैं कि सुदर्शनचरितके दश अधिकार मुमुक्षु विद्यानन्दि द्वारा विरचित है और ११वें अधिकारके रचयिता ब्रह्मनेमिदत्त है । हमारी दृष्टिसे यहाँ 'भावमामास'का अर्थ रचना किया गया न होकर संशोधन या सम्बर्द्धन किया गया होना चाहिये। अतएव ब्रह्मनेभिदत्त सुदर्शनचरितो रचयिता नहीं हैं, अपितु उसके संशोधनकर्ता या सम्पादनकर्ता हैं।
धर्मोपदेशपीयूषवर्षों श्रावकाचार-इस ग्रन्थमें श्रावकाचारका निरूपण किया गया है। प्रारम्भमें लिखा गया है--
श्रीसर्वज्ञं प्रणम्योच्चैः केवलज्ञानलोचनम् ।
सद्धर्म देशयाम्येष भत्र्यानां शमहेतवे ।। इस मगलाचरणसे स्पष्ट है कि ब्रह्मनेमिदत्त सधर्मका उपदेश भव्यजीवोंके कल्याणके लिये लिखते हैं । इस ग्रंयमें श्रावकोंके मूलगुण और उत्तर गुणोंका विवेचन करनेके पश्चात् व्रत्तोंके अतिचारोंका निरूपण आया है । श्रावककी दैनिक षट क्रियाओं, पूजा-भक्ति एवं आराधना आदिका भी उल्लेख किया गया है। यह ग्रन्य पांच अधिकारोंमें विभक्त है और पंचम अधिकार सल्लेखना नामका है। अन्तका पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापागकाचार्य : ४०५