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छयसेनके अनन्तर नरेन्द्र सेन पट्टाधीश हुए। इन्होंने शक संवत् १६५२में ज्ञानयन्त्र प्रतिष्ठित किया है। सूरतमें रहते हुए इन्होंने वि०सं० १७९० में आश्विन कृष्णा त्रयोदशीमें यशोधरचरितकी प्रति लिखी है। नरेन्द्रसेनने पार्श्वनाथपूजा और वृषभनाथपालना रचनाएँ भी लिखी हैं। __ छत्रसेनके एक शिष्य हीरा नामके हुए हैं, जिन्होंने संवत् १७५४में कडतशाहकी प्रेरणासे वृधणपुरमें शाहिदहरण की रचना की है। इसमेनका सा प्रतिष्ठित मूर्तिके आधार पर वि०सं० १७५४के आसपास है। इनके उपदेशसे सं० १७५४में पाश्वनाथको मूर्ति प्रतिष्ठित हुई है। कारजा गद्दीके ये भट्टारक हैं । रचनाओंके आधार पर भी छत्रसेनका समय वि०सं० की १८वीं शती सिद्ध होता है। रचनाएँ
छत्रसेनने संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भाषाओंमें रचनाएँ लिखी हैं। इनकी निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं
१. द्रौपदीहरण ( हिन्दी), २. समवशरण षटपदी ( हिन्दी), ३. मेरुपूजा ( संस्कृत ), ४. पार्श्वनाथ पूजा ( संस्कृत ), ५. अनन्तनाथस्तोत्र ( संस्कृत), ६. पद्मावतीस्तोत्र ( संस्कृत), ७. झूलना ( हिन्दी ), ८. छत्रसेनगुरु आरती (हिन्दी)।
रचनाएँ सामान्यतः अच्छी हैं। अनन्तनाथस्तोत्रका एक पद्य उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है
भुवनविदितभावं देवदेवेंद्रबंधं परर्माजनमर्मत स्तौति यो शुद्धभावैः । भवति सुभगसर्गी मुक्तिनाथश्च नित्यं स्तवनमिदमनिय भाषितं छत्रसेनः ।।
• वर्द्धमान द्वितीय बलात्कारगण कारजा शाखामें विशालकीर्ति आचार्य हुए हैं। इन्होंने सुल्तान सिकन्दर, विजयनगरके महाराज विरूपाक्ष और आरगनगरके दण्डनायक देवप्पकी सभाओंमें सम्मान प्राप्त किया था। इन्हीं विशालकीर्तिके शिष्य विद्यानन्दि हुए। इन्होंने श्रीरंगपट्टनके वीर पृथ्वीपति, सालुव कृष्णदेव, विजय१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ५८ । ४४६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा