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नगरके सम्राट् श्रीकृष्णराय और सुल्तान अल्लाउद्दीन से सम्मान प्राप्त किया था । इन्हीं के शिष्य भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति हुए और देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य भट्टारक वर्द्धमान द्वितीय थे । बर्द्धमान द्वितीयने अपने दशभक्त्यादिमहाशास्त्र में अपना परिचय संक्षेप रूपमें प्रस्तुत किया है और अपनेको देवेन्द्रकीर्तिका शिष्य बताया है | लिखा है
बलात्कारगणाम्भोजभास्करस्य महाद्युतेः । श्रीमद्द वेन्द्रकीर्त्याख्यभट्टारकशिरोमणेः ॥ शिष्येण ज्ञातशास्त्रार्थस्वरूपेण सुधीमता । जिनेन्द्रचरणाद्वतस्मरणाधीन चेतसा ॥ वर्द्धमानमुनी ट्रेण विवाद कथितं दशभक्त्या दिशासनं भव्यसौख्यदम् ॥
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निश्चयतः वर्द्धमान द्वितीय अपने समयके प्रसिद्ध विद्वान् हैं । इन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों में धरसेन, समन्तभद्र, आर्यसेन, अजितसेन, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, लोकसेन, आशाधर, कमलभद्र, नरेन्द्र सेन, धर्मसेन, रविषेण, कनकसेन, दयापाल, रामसेन, माधवसेन, लक्ष्मीसेन, जयसेन, नागसेन, मतिसागर, रामसेन और सोमसेनका स्मरण किया है । इन आचार्योंके अतिरिक्त श्रुतकीर्ति, विजयकोर्ति, पद्मप्रभ भट्टाकलंक वा चन्द्रप्रभका भी स्मरण किया है। ऐतिहासिक अध्ययनकी दृष्टिसे दशभक्त्यादिमहाशास्त्र बहुत ही उपयोगी है ।
इस महाशास्त्रकी रचना शक संवत् १४६४ ( चि०सं० १५९९ ) में हुई है। लिखा है
रचना
शाके वह्निखराब्धिचन्द्रकलिते संवत्सरे शावंरे । शुद्धश्रावणभाकुकृतान्तधरणीतुरमैत्रमेषे रवौ । कर्किस्थे सुगुरी जिनस्मरणतो वादीद्रवृन्दार्चितविद्यानन्दमुनीश्वरः स गतवान् स्वर्गं चिदानंदकः ॥
--- दशभक्त्यादिमहाशास्त्र, अन्तिम प्रशस्ति ।
बर्द्धमान द्वित्तीयकी एक ही रचना दशभक्त्यादिमहाशास्त्र उपलब्ध है । यह रचना संस्कृत में लिखी गयी है।
गंगादास
धर्मचन्द्र विशालकीर्ति के पट्ट शिष्य थे । बलात्कारगण कारचा शाखामें २. दशभक्त्यादिमहाशास्त्र, प्रशस्तिभाग — प्रशस्ति संग्रह आरा, ५० १४३ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ४४७