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चरित है । कथावस्तुको आचार्यने ३३ अधिकारोंमें विभक्त किया है 1 ग्रन्थकी भाषा और शैली सरल होने पर भी प्रवाहमय है। कविने अनुष्टुप पद्योंके साथ इन्द्रवज्रा, उपजाति, शार्दूलविक्रीड़ित आदि छन्दोंको भी स्थान दिया है।
'शब्दरत्नप्रदीप' संस्कृतभाषाका कोश है । इसमें कविने शब्दोंके अर्थ तो दिये ही है, साथ ही उनके प्रकृति, प्रत्यय और लिंगादि भी निर्दिष्ट किये हैं। 'शब्दरत्नप्रदीप' की प्रशस्तिमें सोमसेनने अपनेको अभिनव भट्टारक कहा है। ग्रंथको प्रशस्ति निम्न प्रकार है___ "शुभमस्तु कल्याण ।। संवत् १६६६ शाके १५३१ वार्षे श्रावणकृष्णन तिथि प्रतिपदा ॥१॥ शुक्रवासरे ग्रन्थ लिखिते ठा. गोपिचंद उदयपुरस्थाने तिष्ठंत्ये ॥ कल्याणंभवेत् अभिनव भ० श्रीसोमसेनस्येदं पुस्तकम्।'
धर्मरसिक-त्रिवर्णाचारमें धर्म, अर्थ और काम इन तीनों विषयोंका वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ पर वैदिक धर्मका पूरा प्रभाव है। श्री जुगलकिशोर मुख्तारने अपनी ग्रन्थपरीक्षामें इसका समालोचन किया है। ग्रन्थकारने ग्रन्थके अन्तमें लिखा है
धर्मार्थकामाय कृतं सुशास्त्रं श्रीसोमसेनेन शिवार्थिनापि । गृहस्थधर्मेषु सदा रता ये कुर्वतु तेऽभ्यासमहो सुभव्याः ॥२१३॥
छत्रसेन मलसंव, सेनगण, पुष्करगच्छकी शाखामें सोमसेनके शिष्य जिनसेन हए और जिनसेनके समन्तभद्र । इन समन्तभद्रका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। छत्रसेनके सम्बन्धमें विशेष उल्लेख नहीं मिलते हैं, पर उनकी रचनाओंमें जो प्रशस्तियाँ अंकित हैं, उनसे ऐसा अनुमान होता है कि छत्रसेन काव्यरचयिता होनेके साथ वाग्मी और प्रतिष्ठाकारक भी थे। बताया गया है
श्रीमूलसंघमे गछ मनोहर सोभत हे जु अतिहि रसाला । पुष्करगछ सुसेनगणानित पूज रचे जिनकी गुणमाला ॥ समतजुभद्रके पट प्रगट भयो छत्रसेन सुवादि विसाला।
अर्जुनसुत कहे भवि सु परवादीको मान मिटे ततकाला॥ - इस प्रकार अर्जुनसुत विहारीदासने छत्रसेनका प्रशंसात्मक परिचय दिया है। बिहारीदासने इन्हें काव्य, पुराण और आगमका ज्ञाता तो कहा ही है, साथ ही यह भी बताया है कि, ये सेनगणके भट्टारक समन्तभद्रके शिष्य थे।
१, भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ४०1 २. भट्टारकसम्प्रदाय, लेखांक ६२।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४४५