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अनेक रोगोंकी चिकित्सा प्रतिपादित है । सप्तदश अधिकार में १२० पद्म हैं और इनमें त्रिदोषोत्पन्न लघुव्याधियों को चिकित्सा बतलायी गयी है ।
(१८) बालग्रहभूत तन्त्राधिकार — इस परिच्छेद में १३७ पद्य हैं और विभिन्न बालरोगोंकी चिकित्सा वर्णित है ।
(१९) विषरोगाधिकार - इस अधिकार में विभिन्न प्रकारके विषोंकी चिकिसावर्णित है ।
(२०) शास्त्र संग्रहाधिकार - ९४ पद्योंमें धातुओं एवं विभिन्न प्रकारके शरीरस्य रोंगों की चिकित्सा बताई गयी हैं ।
(२१) कर्मचिकित्साधिकार -- इस परिच्छेद ६६ पद्य हैं और वमन विरेचनादि चिकित्सा विधियोंका वर्णन है ।
(२२) भैषज्यकर्मोपद्रवचिकित्साधिकार इस परिच्छेद में १७२ पद्य हैं । वमन, विरेचन, परिस्राव, बस्ति धादि वित्रियोंका वर्ण है ।
(२३) सर्वोषधकर्मव्यापच्चिकित्साधिकार — इसमें १०९ पद्य हैं । विभिन्न प्रकारकी वमन विरेचन विधियोंका वर्णन आया है ।
(२४) रसरसायन सिद्धयधिकार - इस परिच्छेद में ५६ पद्य हैं। रसकी महत्ता रसके भेद, रस-शुद्धि तथा पारदसिद्ध रस आदिका वर्णन आया है ।
(२५) कल्पाधिकार में ५७ पद्य हैं। हरीतिकी, त्रिफला, शिलाजतु, पायस, भल्लातपाषाणकल्प, मृत्तिकाकल्प, एरण्डकल्प, क्षारकल्प आदि कल्पोंका प्रतिपादन किया ।
परिशिष्ट रूप में रिष्टाधिकारमें अरिष्टोंका वर्णन और हिताहिताधिकार में पथ्यापथ्यका निरूपण आया है । आयुर्वेदकी दृष्टिसे यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है ।
आचार्य भावसेन त्रैविद्य
आन्ध्रप्रदेशके अनन्तपुर जिलेमें अमरापुरम् ग्रामके निकट एक समाधिलेखमें निम्नलिखित पद्य अंकित है
श्रीमूलसंघसेनगणदवा दिगिरिवज्रदंडमप्प भावसेन त्रैविद्यचक्रवर्तिय निषिधः ||
कातन्त्ररूपमालावृत्तिके रचयिता भी भावसेन व विद्या है। इस ग्रन्थ के अन्तमें आयी हुई प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि ये मूलसंघ सेनगणके आचार्य थे । सेनगणकी पट्टावली में भी इनका उल्लेख आया है-
२५६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा