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की नोक में उलझ जाने से वह मजूषा राजा जनकको मिल गयी और उन्होंने उससे प्राप्त सीताको अपनी पुत्री के रूपमें स्वीकार किया। इसके पश्चात् जब वह विवाह योग्य हुई, तब जनकको चिन्ता हुई। उन्होंने एक वैदिक यज्ञ किया और उसकी रक्षाके लिये राम-लक्ष्मणको आग्रहपूर्वक बुलवाया । गमके साथ सीताका विवाह हो गया । यशके समय रावणको आमन्त्रण नहीं भेजा गया, इससे वह अत्यन्त क्रुद्ध हो गया और इसके बाद जब नारदके द्वारा उसने सीताके रूपकी अतिशय प्रशंसा सुनी, तब उसका हरण करनेके लिये सोचने लगा ।
यांक हट करने, रामको वनवास देने आदिकी इस कथामें कोई चर्चा नहीं है। पंचवटी, दण्डकवन, जटायु, सूर्पणखा, खरदूषण आदिकं प्रसमोंका भी अभाव है। बनारस के पास ही चित्रकूट नामक बनसे रावण मीताका हरण करता है और सीताके उद्धार हेतु लंकामे राम-रावण युद्ध होता है । रावणको मारकर राम दिग्विजय करते हुए लौटते हैं और दोनों भाई बनारस में राज्य करने लगते हैं । सीताके अपवादका और उसके कारण उसे निर्वासित करने का भी जिक्र नहीं है । लक्ष्मण एक असाध्य रोग में ग्रसित होकर मृत्यु प्राप्त करते हैं। इससे रामको उद्वेग होता है । वे लक्ष्मण पुत्र पृथ्वीसुन्दरको राजपदपर और सीताके पुत्र अजितञ्जयको युवराज पदपर अभिषिक्त अनेक राजाओं और सांता आदि रानियों के साथ जिनदीक्षा ले लेते हैं । यह कथा प्रचलित रामकथा से बिल्कुल भिन्न है । कविको यह किस परम्परासे प्राप्त हुई, यह नहीं कहा जा सकता है । दशरथजात्राकसे कुछ कथासूत्र साम्य रखते है ।
अन्य कथाओं में बलराम और श्रीकृष्णकी कथा हरिवंशपुराणको कथासं भिन्न है। इसी प्रकार पचहत्तर पर्व में जीवन्धरस्वामीका चरित निबद्ध किया गया है। इस चरितमें भी वादीभसिंह द्वारा लिखित गद्यचिन्तामणि और छत्रचूड़ामणिके कथानक में पर्याप्त अन्तर है । इन सभी कथा सूत्रोंके देखने से यह ज्ञात होता है कि गुणभद्राचार्यने किसी अन्य परस्परासे कथानकोंको ग्रहण किया है ।
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कथानकोंकी शैली रोचक और प्रवाहपूर्ण है । ८ वें, १६ वें २२ में, २३ व और २४ व तोर्थंकरको छोड़कर अन्य तीर्थकरोंके चरित्र अत्यन्त संक्षेपमें लिखे गये हैं, पर वर्णन - शैलीको मधुरताके कारण यह संक्षेप भी रुचिकर हो गया है । कथानकोंके साथ रत्नत्रय, द्रव्य, गुण, कर्म, सृष्टि एवं सृष्टिकर्तृत्व आदि विषयोंका भी विवेचन किया गया है।
१०: तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा