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जो प्रभु स्तुति, पूजन, वन्दन और नामस्मरण आदि करता है । इन्द्रियों की सार्थकता प्रभुभक्ति में ही है । कविने लिखा है
धन्य हाथ ते नर तणा, जे जिन पूजन्त । नेत्र सफल स्वामी हवां, जे तुम निरखन्स ||
शीतलनाथ गोत्तमें शीतलनाथ तीर्थंकरकी स्तुतिको गयी है । फुटकर पदों में संसार, शरीर और भोगोंके चित्र अंकित किये गये हैं । इनकी एक अन्य गणित विषयक रचनाको सूचना पण्डित परमानन्दजीने दी है। यह रचना उसरछत्तीसी नामको है । डॉ० कस्तूरचन्द काशलीवाल की सूचना के आधार पर इस कविकी हिन्दी और संस्कृतको अन्य रचनाएँ भी होनी चाहिये। सुमतिकी तिने ग्राम और नगरों में बिहारकर धर्मविमुख जनताको धर्मको ओर अग्रसर किया है और मिथ्याडम्बर में फंसे हुए व्यक्तियों का उद्धार किया है | आत्मसाधना में संलग्न होने के हेतु इन्होंने जनजागरणका अद्भुत कार्य किया है । अतएव धर्मप्रचार और साहित्यसेवाको दृष्टिसं इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
कारक दिनचन्द्र
दिल्लोको भट्टारकगद्दी के आचार्यों में जिनचन्द्रका महत्त्वपूर्ण स्थान है । यों तो जिनचन्द्र नामके तीन आचार्य हुए हैं । प्रथम गुणचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र, द्वितीय मेरुचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र और तृतीय शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्रपट्टावली में बताया गया है“सं० १५०७ जेष्ठ वदि ५ भ० जिनचन्द्रजी गृहस्थवर्षं १२ दिक्षावर्ष १५ पट्टवर्ष ६४ मास ८ दिवस १७ अंतर दिवस १० सर्व वर्ष ९१ मास ८ दिवस २७ बघेरवाल जाति पट्ट दिल्ली ।
" इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि वि० संवत् १५०७ ज्येष्ठ कृष्णा पंचमीको इनका पट्टाभिषेक बड़ी धूम-धामके साथ हुआ था । १२ वर्षकी अवस्था में इन्होंने घर छोड़कर दीक्षा ग्रहण की और १५ वर्षो तक शास्त्रोंका अध्ययन किया । ६४ वर्ष तक ये भट्टारक पदपर आसीन रहे। इनकी आयु ९१ वर्ष आठ माह, सत्ताईस दिन थी । ये बघेरबाल जातिके थे। जिनचन्द्र ने राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब एवं दिल्लीके विभिन्न प्रदेशों में पर्याप्त विहार किया और जनताको धर्मोपदेश दिया । प्राचीन ग्रन्थोंकी नयी-नयी प्रतियां लिखवाकर मन्दिरोंमें विराजमान करायों तथा नये-नये ग्रन्थोंका स्वयं निर्माण भी किया। पुरातनमन्दिरोंका जीर्णोद्धार एवं नये मन्दिरोंकी प्रति१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक २४८ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचा : ३८१