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आदित्यव्रतरास- इसमें १३२ प है । जगती मिश्रित हिन्दीमें यह रचना लिखी गयी है। रवि कथा वही अंकित है, जो अन्यत्र गायी जाती है । आरम्भमें ही विने लिखा है
ग्राम जिनेगर व प्रगति परमानंदन | भवन्सायर तरणतारण भवीयण गुहतरुवंदनु || श्रीशारदा हिमांश निर्मल सौख्यनिधाननु | आदित्यव्रतबस्वाणगुं ए जिनपासनपरवाननु ||
इस प्रकार ब्रह्मनेमिदत्त पुराणकाव्य और आचार शास्त्र के रचयिता हैं । इनके ग्रन्थामें मौलिकताकी कमी हो सकती है, पर पुराने कथानकको ग्रहण कर उसे अपनी शैली में निवद्ध करनेकी प्रक्रिया में आचार्य पारंगत हैं ।
यशःकीर्ति
काष्ठासंघके माथुरान्वय पुष्करगणके भट्टारकोंमें भट्टारक यशःकीर्तिका नाम आया है । यों तो यशकीनि नामके कई आचार्य और भट्टारक हुए हैं । एक यशःकीति पद्मनन्दिके शिष्य जेस्ट शाखाके भट्टारक हैं। इनका समय वि०की १७वीं शती है । दूसरे यशः कोति नेमिचद्रके शिष्य हुए हैं। ये नौ वर्ष गृहस्थीम रहे थे और ४० वर्ष तक उन्होंने पटूट पर निवास किया था। तीसरे यशःकीर्ति माथुरगच्छके पद्मनन्दिके शिष्य हैं । इनका समय वि०की १८वीं शताब्दी है । यशकीनि रत्नकीत्तिके मिष्य हैं। वि०सं० १९५३ के पश्चात् नागाम में इनका पट्टाभिषेक हुआ था और वि०० १६४३में उनका स्वर्गवास हुआ | इन कीर्ति पश्चात् मिहनन्दि तथा उनके पञ्चात् गुणचन्द्र भट्टार हुए। छठ्ठे यणःकीति रामकीतिके शिष्य हैं। रामकीर्तिका समय विकी १९वीं शती है । ये बलात्कारगण ईश्वर यावाक भट्टारक थे। इनके दादागुरु चन्द्रकीर्तिने वि०मं० १८२२ केसरियाजी तोर्थक्षेत्र में २४ तीर्थकरों की चरणपादुकाएं स्थापित की श्री चन्द्रकीति के पदचात् रामकीर्ति और उनके पश्चात् यशः कीर्ति भट्टारक हुए। इनके उपदेशसे संवत् १८६३की आषाढ़ शुक्ला तृतीया को केसरियाजी मन्दिरके परकोटेका निर्माण पूरा हुआ था। श्रीब्रह्मचारी शीतलप्रसादजों ने ईडरके भट्टारकों का जो वृतान्त लिखा है, उसमें यशः कौतिके पश्चात् क्रमशः सुरेन्द्रकोति, रामकोर्ति, कनककीर्ति और विजयकीर्तिका उल्लेख किया है। सातवें यशःकीति विजयसेनके शिष्य हैं और वें यशःकीति विमलकीर्तिक विष्य बताये गये है । जगतसुन्दरोप्रयोग मालामें
१. दानवोर माणिकचन्द्र, पृ० ३२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ४०७