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गुणस्थानवेलि-आत्मविकासके १४ सोपान बतलाये गये हैं। ये गुणस्थान मोह और योगके निमित्तसे उत्पन्न होते हैं। मिथ्यात्वगुणस्थानमें दर्शनमोहके उदयसे जीवकी दृष्टि विपरीत होती है। और स्वाद कटुक होता है । वस्तुतत्त्व उसे रुचिकर प्रतीत नहीं होता है। जीव मिथ्यात्वगुणस्थानमें अनन्त कालतक निवास करता है । मिथ्यात्वके पाँच भेद है--१. विपरीत, २. एकान्त, ३. विनय, ४. संशय और ५. अज्ञान । मिथ्यात्वके इन भेदोंके कारण जीवके परिणामोंमें अस्थिरता बनी रहती है । उसे हितकर मार्ग नहीं सूझता है। इसी कारण वह संसारमें अनेक पर्यायों में परिभ्रमण करता रहता है। कविने आदितीर्थकरके समवशरण में भरतचक्रवर्ती द्वारा गुणस्थानोंके सम्बन्ध में किये गये प्रश्नके उत्तरस्वरूप, गुणस्थानोंका स्वरूप प्रतिपादित किया है । उत्थानिकामें बताया है
सात नगर अाणिया माविया सब परिवारे जी रिसहेयर पाय वंदीए, पूजीए अट्ठपयारे जो अदृपयारीय रचीय पजा भरत राजा पछए। गुणठाण चौद विचार सारा भणहि जिण सुणि बच्छए । मिथ्यात नामै गुणहठाणे वसहिं कालु अनंतए ।
मिथ्यात पंचहु नित्य पूरे भहि चिंहुगति जंतुए।। दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे जो तत्वरुचि उत्पन्न होती है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होते ही आत्मामें निर्मलता उत्पन्न होती है और कषायोंका कालुष्य उत्तरोतर क्षीण होने लगता है। आत्मनिरीक्षण करनेसे चारित्र और ज्ञानकी भी वृद्धि होती है। इस प्रकार चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ, सप्तम आदि गुणस्थानोंका क्रमशः आरोहण करता हा जीव अपने का निर्मल बनाता है। इस प्रकार इस कृतिमें स्वात्मापलब्धि. का चित्रण किया गया है।
२. खटोला रास—इस रासमें १२ पद्य हे और खटोलेका रूपक देकर आत्मतत्त्वका विश्लेषण किया है। यह आत्मसम्बोधक रूपककाव्य है । खटोलेमें चार पाये होते हैं, दो पाटी और दो सेरुवे । आत्मतत्त्वरूपी खटोला रत्नत्रयरूपी बानसे बुना हुआ है। उसपर शुद्धभावरूपी सेजको संयमश्रीने बिछाया है। उसपर बैठा हुआ आत्माराम परमानन्दकी नींद लेता है। मुक्ति-कान्ता पंखा झलती है और सुर-नरका समूह सेवा करता है। वहां आत्मप्रभुको अनन्तचतुष्टयरूप स्वात्मसम्पत्ति या सम्पदाका उपभोग करता है।
नेमिचरितरास—इस रासकाध्यमें ११५ पद्य हैं। वसन्तऋतुके वर्णनके ३८८ : मीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा