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यह है कि उन पुष्पसेनका अजितसेन नामका कोई शिष्य ही नहीं है। उनके शिष्यका नाम बासुपूज्य सिद्धान्तदेव मिलता है। साथ ही अजितसेन और पुष्पसेनके स्थिति-कालके एक होनेमें भी बाधा है। अजितसेनके सम्बन्धमें कहीं भी ऐसा निर्देश नहीं मिलता कि वे महाकवि या काव्यग्रन्धोंके निर्माता थे। गद्य चिन्तामणि जैसे श्रेष्ठ गद्य-काव्यके निर्माताके रूपमें मल्लिषेण-प्रशस्तिमें उनका उल्लेख अवश्य ही होना चाहिए था, जबकि इस प्रशस्तिमें उनकी प्रशंसा लगभग ५० पंक्तियोंमें की गयी है। एक दूसरी बात यह भी है कि जिन अजितसेनको शास्त्रीजी वादीभसिंह कहते हैं वे अजित्तसेन दार्शनिक विद्वान् हैं, कवि नहीं । अत: के० भुजबली शास्त्री द्वारा समर्थित वादीभसिहका समय तर्कसंगत नहीं है। __ श्री कृष्णमाचारियरने जो अपना अभिमत प्रकट दिया है, उसका आधार तो श्री टी० एस० कुप्पु स्वामी द्वारा प्रस्तुत तर्क ही है। अतएव वादीभसिंहका समय डा० प्रो० दरबारीलाल कोठिया द्वारा समश्रित ही तकसंगत प्रतीत होता है। श्रीमान पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीने अकलंकदेबका गुरुभाई पुष्पसेनको माना है। इन्हीं पुष्पसेनके शिष्य बादीभसिंह थे। अतः जिनसेन और वादिराज द्वारा उल्लिखित वादिसिंह ही वादोभसिंह है, इसमें कोई सन्देह नहीं । संक्षेपमें समस्त प्रमाणोंका अध्ययन करनेसे यही निष्कर्ष निकलता है कि बादीभसिंहका समय नवम शती है । रचनाएँ
वादी सहकी दो ही रचनाएँ उपलब्ध हैं—(१) क्षत्रचूड़ामणि और (२) गद्य चिन्तामणि । तीसरी रचना स्याद्वादसिद्धि इनकी बतायी जाती है, पर इसे अजित्तसेनकी होना चाहिए। अतः मेरी दृष्टि में इसके कर्ता संदिग्ध हैं।
१. क्षत्रचुडामणि-क्षत्रचूड़ामणि अनुष्टुप् छन्दोंमें लिखित एकार्थक प्रवन्धकाव्य है । इस काव्यमें ११ लम्ब हैं और जीवन्धरस्वामीकी कथा वर्णित है। नीति और सूक्तिवाक्योंके कारण यह काव्य अत्यन्त सरस है। कथावस्तु
हेमांगद देशको राजधानी राजपूरीमें महाराज सत्यन्धर राज्य करते थे। ये अपनी महारानी विजया में अत्यासक्त थे। अतः राज्यका भार मंत्री काष्ठागारको सौंप दिया। कृतघ्न काष्ठांगारने राज्यतृष्णाके वशीभूत होकर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया । युद्धभूमिमें क्षात्र धर्मका पालन करते हुए सत्यन्धर काम आये। महाराजकी रानी विजया गर्भिणी थी, अतएव राजवंशकी आशाके एकमात्र केन्द्र गर्भस्थ शिशुके संरक्षणार्थ महाराजने पहलेसे ही आकाश
प्रबुद्धाचार्म एवं परम्परापोषकाचार्य : ३१