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में उड़ने वाला मयूरयंत्र बनवाया था और उसमें युद्धको विकट स्थितिके समय महारानीको बैठाकर आकाश में उड़ा दिया गया । सौभाग्यवश वायुयान श्मशान भूमिमें पहुँचा और वहीं महारानीके एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ । महारानी तपस्वियों के आश्रम में रहकर अपना समय व्यतीत करने लगी और पुत्रका पालन गन्धोत्कटके यहाँ होने लगा । वालक जीवन्धरने आर्यनन्दि नामक आचार्य से विद्या ग्रहण की । तरुण होने पर कुमारको ज्ञात हुआ कि मैं क्षत्रियपुत्र हूँ । मेरे राज्यका अधिकारी काष्ठांगार बन गया है । अतएव अवसर पाकर वीरशिरोमणि जीवन्धरने काष्ठागारको मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लिया । बहुत समय तक वैभव-विभुतिका आनन्द प्राप्तकर स्थायी शान्ति प्राप्तिके हेतु जीवस्वर अपने पुत्र वसुन्धरको राज्यका भार सौंपकर प्रव्रजित हो गये और भगवान् महावीरके समवशरणमें रहकर कर्मोकी निर्जरा कर मुक्तिलाभ प्राप्त किया ।
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कवि कथावस्तुको वहुत ही सुन्दर रूपमें ग्रथित किया है । प्रत्येक पद्य में प्रायः अर्थान्तरन्यास अलंकार पाया जाता है। नीति और सूक्तियों का तो यह सागर है । शिक्षा सम्बन्ध में कहा गया है— 'अनवद्या हि विद्या स्यात् लोकद्वयफलावहा' ( ३।४५ ) अर्थात् निर्दोषज्ञान ही इस लोक और परलोकमें फलदायी है । इसकी पुष्टिमें कविने दूसरी उक्ति में बतलाया है - 'हेयोपादेयविज्ञानं नो चेद् व्यर्थः श्रमः श्रुती' ( २१४४ ) यदि य-उपादेयरूप विवेकबुद्धि जागृत न हुई तो शास्याभ्यास में किया गया श्रम व्यर्थ है । कविने निर्धनताका सफल चित्रण करते हुए लिखा है
दारिद्र्यादपरं नास्ति जन्तूनामप्यरुन्तुदम् । अत्यक्तं मरणं प्राणैः प्राणिनां हि दरिद्रता || रिक्तस्य हि न जागति, कीर्तनीयोऽखिलो गुणः 1 हन्त किं तेन विद्यापि विद्यमाना न शोभते ॥"
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निर्धनतासे बढ़कर संसारमें अन्य कोई भी कष्टदायक वस्तु नहीं है। यह प्राण ही नहीं लेती, पर अन्य सभी प्रकारके कष्टोंको प्रदान करती है। वस्तुतः यह विपत्तियोंका घर है ।
निर्धन व्यक्ति के प्रशंसनीय सम्पूर्ण गुण जागृत नहीं होते और तो क्या विद्यमान गुण भी शोभित नहीं होते ।
कवि विषयासक्तिके दुष्परिणाम, वृद्धावस्था, उदारता, आत्मनिरीक्षण, आत्मोद्वार, विपत्ति, वैराग्य, सज्जन - दुर्जन स्वभाव आदिका सफल चित्रण किया है । इस काव्यमें गर्भित सूक्तियोंका सांस्कृतिक अध्ययन करने पर ८ वीं, ९ वीं शताब्दीकी अनेक मान्यताएँ मुखरित हो उठती हैं ।
१. क्षत्रचूडामणि ३६, ७ ।
३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा