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________________ विरुद थे। उनके बड़े भाई सत्यवाक्यने कविता साम्राज्यलक्ष्मीपति कहकर हस्तिमल्लकी सूक्तियोंकी प्रशंसा की है । 'राजावलिकथे' के कर्त्ताने उन्हें 'द्वयभाषा कविचक्रवर्ती' लिखा है । प्रतिष्ठासारो द्वार के रचयिता ब्रह्मसूरिने अपने वंशका परिचय देते हुए लिखा है कि पाण्डवदेश में गुडिपत्तनके शासक पाण्डय नरेन्द्र थे । ये पाण्डय राजा बड़े धर्मात्मा, वीर, काकुशल और पण्डितों का सम्मान करते थे। वहाँ ऋषभदेवका रत्न स्वर्णजटित सुन्दर मन्दिर था, जिसमें विशाखमन्दि आदि मुनि रहते थे । गोविन्द भट्ट भी यहीं निवास करते थे । हस्ति पुत्रका नाति बताया जाता है जो कि पिता के समान ही यशस्वी और बहुशास्त्रज्ञ था । बहु अपने वशिष्ठ काश्यपादि बन्धुओंके साथ होयसल देशकी राजधानी छत्रत्रयपुरोमें जाकर रहने लगा। पार्श्वपण्डित चन्द्रप, चन्द्रनाथ और वैजय पुत्र हुए। चन्द्रपके पुत्र विजयेन्द्र और उनके पुत्र इन्द्रसूरि हुए। अतएव स्पष्ट है कि गुडिपत्तनद्वीप वत्तंमान तजौर जिलान्तर्गत दीपनगुडि स्थान ही है । नाटककार हस्तिमल्ल इसो स्थानके निवासी थे । हस्तिमल्ल गृहस्थावस्था में पुत्र-पौत्रादिसे समन्वित थे । इनका यह वास्तविक नाम नहीं है । यह उपाधिप्राप्त नाम है। वास्तविक नाम मल्लिषेण था । आपटेने दक्षिणके ग्रन्थागारोंके ग्रन्थोंकी जो सूची तैयार की थी, उसमें मल्लिषेण और हस्तिमल्ल ये दोनों नाम मिलते हैं। मल्लिषेण नाम सेनगणीय आचार्योंको परम्परामें अपनेको सम्मिलित करने का सूचक है, क्योंकि दक्षिण में उन दिनों से नगणोय आचार्यों की बड़ी प्रतिष्ठा' थी । परवादीरूपी हस्तियों को वश करनेके कारण हस्तिमल्ल यह उपाधिनाम पीछे प्रसिद्ध हुआ होगा । हस्तिमल्ल युवावस्था में उद्धत और अभिमानी थे, यह विक्रान्तकौरवकी प्रस्तावना से स्पष्ट है । वे अपनेको सरस्वती द्वारा स्वयं वृत्तपत्ति समझते हैं । निःसंदेह • हस्ति मल्ल भ्रमणप्रिय थे । यही कारण है कि सुभद्रानाटिका में भ्रमणको उन्होंने पुरुषोंका सुख मौना है । पिताको आशाको ये अलंघ्य मानते ४ थे । ये अपने प्रारम्भिक जीवन में कौतिके अभिलाषी थे। इन्होंने अपने जीवनमें १. सूत्रधार अस्ति किल सरस्वतीस्वयंवरवल्लभेन भट्टारगोविन्दस्वामिसूनुना हस्तिमल्लनाम्ना महाकवि तल्लजेन विरचितं विक्रान्तकौरवं नाम रूपकमिति । -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति, पृ० ३, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई १९७२ । P २. प्रशस्ति संग्रह, आरा, पृ० १०५ । ३. नानादेशपरिभ्रमो नामकं सौख्यं पुरुषस्य सुभद्रा नाटिका, पृ० २। ४. पितः स्तु संकेतमलंघनीयं – विक्रान्तकौरव, ७४१५ । २७६ : तीर्थंकर महावोर और उनकी आचार्य-परम्परा
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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