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है। पांच ज्ञानोंमें कौन क्षायिक होते हैं और कौन क्षायोपमिक, इस वर्णनके पश्चात् मिथ्यात्वगुणस्थानमें कौन-कौनसे ज्ञान रहते हैं तथा शेष गुणस्थानोंमें कौन-कौनसे ज्ञान सम्भव हैं । इसी प्रकार चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन, अवधि-दर्शन और केवलज्ञान-दर्शनका भी कथन किया है। गुणस्थान और मार्गणा प्रत्ययोंमें भावोंको अवगत करनेके लिए यह ग्रन्थ उपयोगी है।
३. परमागमसारग २३० गाथाएं हैं और आगमके स्वरूप तथा भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है। श्रुतमनिकी ये तीनों रचनाएँ उनके सिद्धान्तज्ञानका महत्त्व प्रकट करती हैं। इन रचनाओं पर गोम्मटसार कर्मकाण्ड और जीवकाण्डका प्रभाव पूर्णतया ज्ञात होता है । भावविभङ्गी में पांचों भावोंके उत्तर भेदों से किस स्थानमें कितने भाव होते हैं और कितने नहीं होते और कितने भाव उसी स्थान में होकर आगे नहीं होते इन तीनों बातोंका स्पष्टीकरण किया है। इसी कारण इस ग्रन्थका नाम त्रिभंगी है। इसी प्रकार आस्रवप्रत्यय किस गुणस्थानमें कितने होते हैं, कितने नहीं होते और कितने प्रत्यय उसी गुणस्थान तक होते हैं, आगे नहीं होते इन तीनोंका कथन किया है। दोनों त्रिभंगी ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला ग्रन्थसंख्या २० में प्रकाशित हैं।
आचार्य हस्तिमल्ल
___ जिस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय में रामचन्द्र नाटककारके रूपमें ख्यात हैं, उसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदायमें हस्तिमल्ल । हस्तिमल्ल वत्स्यगोत्रीय ब्राह्मण थे और इनके पिताका नाम गोविन्दभट्ट था। ये दक्षिण भारतके निवासी थे। विक्रान्तकौरबकी' प्रशस्तिसे अवगत होता है कि गोविन्दभट्टने स्वामी समन्तभद्र के प्रभावसे आकृष्ट होकर मिथ्यात्वका त्याग कर जैनधर्म ग्रहण किया था। गोविन्दभट्टके छह पुत्र थे--१. श्रीकुमारकवि, २. सत्यवाक्य, ३. देवरवल्लभ, ४. उदयभूषण, ५. हस्तिमल्ल और ६. वर्तमान ! ये छहों पुत्र कवीश्वर थे।
हस्तिमल्लके सरस्वतोस्वयंवरवल्लभ, महावितल्लज और सूक्तिरत्नाकर
गोविन्दभट्ट इत्यासीद्विद्वान्मिथ्यात्वजितः । देवागमनसूत्रस्य श्रुत्या सद्दर्शनान्धितः ॥१०॥ --विक्रान्तकौरवप्रशस्ति ।
श्रीकुमारकनिः सत्यवाक्यो देरवल्लभः ॥१२॥ -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति । उच्चभूषणनामा च हस्तिमल्लाभिधानकः । वर्धमानकविश्चेति षडभूवन् कवीश्वराः ।।१३।। -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २७५