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मुख्यः' कहा है और न्यायविनिश्चयको प्रशस्तिमें अपने आपको 'सिंहपुरेश्वर " लिखा है । इन दोनों पदोंका आशय सिहपुरनामक स्थानके स्वामीसे है । अतः प्रेमीजीका अनुमान है कि सिंहपुर उन्हें जागीरमें मिला हुआ था और वहाँ पर उनका मठ भी था ।
श्रवणबेलगोलके शक संवत् १०४७ के अभिलेखमें' वादिराजकी शिष्यपरम्पराके श्रीपाद सन्धिदेव होता निष्णुर्द्धन नेमलदेव द्वारा जिनमन्दिरोंके जीर्णोद्धार और मुनियोंके आहारदानके हेतु शल्यनामक ग्रामको दानरूप देनेका वर्णन है । शक सं० ११२२ में उत्कीर्ण किये गये ४९५ संख्यक अभिलेखमें बताया गया है कि षट्दर्शनके अध्येता श्रीपालदेव के स्वर्गवासी होनेपर उनके शिष्य वादिराजने परवादिमल्लनामका जिनालय निर्मित कराया था और उसके पूजन एवं मुनियोंके आहारदान के हेतु भूमिदान दिया था ।
उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि वादिराजकी गुरुपरम्परा मठाधीशोंकी थी, जिसमें दान लिया और दिया जाता था । ये स्वयं जिनमन्दिरोंका निर्माण कराते, जीर्णोद्धार कराते एवं अन्य मुनियोंके लिए आहारदानकी व्यवस्था करते थे ।
देवसेनसू रिके दर्शनसारके अनुसार द्रमिल या द्रविड़ संघके मुनि कच्छ, खेत, वसति ( मन्दिर ) और वाणिज्यरूपमें आजीविका करते थे तथा शीतल जलसे स्नान भी करते थे। इसी कारण द्रमिल संघको जैनाभास कहा गया है। कर्नाटक और तमिलनाड इस संघके कार्यक्षेत्र थे ।
वादिराजसूरिके विषय में एक कथा प्रचलित है कि इन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। एक बार राजाकी सभा में इसकी चर्चा हुई, तो इनके एक अनन्य भक्तने अपने गुरुके अपवादके भयसे झूठ ही कह दिया कि उन्हें कोई रोग नहीं है । इस पर वाद-विवाद हुआ और अन्तमें राजाने स्वयं ही परीक्षा करनेका निश्चय किया । भक्त घबराया हुआ वादिराजसूरिके पास पहुँचा और समस्त घटना कह सुनायी । गुरुते भक्तको आश्वासन देते हुए कहा - "धर्मके प्रसादसे ठीक होगा, चिन्ता मत करो" । अनन्तर एकीभावस्तोत्रकी रचना कर अपनी व्याधि दूर की ।
१. सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार म्यायाचार्य प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, सन् १९५४ ई० अन्तिम प्रशस्ति ।
२. प्रेमी - जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई, द्वितीय संस्करण, पु० २९४ ।
३. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ४९३, पू० ३९५
४. न्यायविनिश्वयविवरण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रस्तावना, पु० ५९-६१ ।
९० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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