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वादिराजकी षट्तकषण्मुख, स्यावादविद्यापति और जगदेकमल्लवादी' उपाधियां थीं। एकीभावस्तोत्रके अन्समें निम्नलिखित पद्य पाया जाता है
वादिराजमनुगाब्दिकलोको वादिराजमनुतार्किकसिंहः ।
वादिराजममुकाव्यकृतस्ते वादिराजमनुभव्यसहायः ।। अर्थात् समस्त वैयाकरण, तार्किक और भव्यसहायक वादिराजसे हीन हैं, वर्थात् वादिराजकी समता नहीं कर सकते हैं।
एक शिलालेखमें कहा गया है कि वे सभामें अकलंकदेव ( जैन ), धर्मकीर्ति (बौद्ध), बृहस्पति ( चार्वाक् ) और गौतम { नैयायिक ) के तुल्य हैं। इससे स्पष्ट है कि वादिराज अनेक धर्मगुरुओंके प्रतिनिधि' थे।
मस्लिषेपप्रशस्तिमें. वादिविवेता और कविके रूपमें इनकी स्तुति की गयी गयी है। इन्हें जिनेन्द्रके समान शक्तिशाली वक्ता और चिन्तकके रूपमें बताया गया है
त्रैलोक्य-दीपिका पाणी द्वाभ्यामेवोदगादिह ।
जिनराजत एकस्मादेकस्माद्वादिराजतः ।। वादिराज श्रीपालदेवके प्रशिष्य, मतिसागरके शिष्य और रूपसिद्धिके कर्ता दयापाल मुनिके गुरुभाई थे । वादिराज यह नाम उपाधि जैसा प्रतीत होता है । सम्भवतः अधिक प्रचलित होनेके कारण ही कवि इस नामसे ख्यात हो गया होगा। ऐतिहासिक शोष और खोजके आधार पर कुछ विद्वानोंने कविका नाम कनकसेन बतलाया है। पर सबल तकोंसे इसको सिद्धि नहीं हो पाती है । अतः अभी तक उक्त तथ्य मान्य नहीं हो सका है।
पार्श्वनाथचरितको प्रशस्तिमें अपने दादागुरु श्रीपालदेवको “सिंहपुरैक
१. षट्तकषण्मुख स्थानावविद्यापति गनु अगकमस्लवादिंगलु एमिसिद श्रीवादिराज
देवरुम -श्रीराइस द्वारा सम्पापित नगर तालुकाका इन्सक्रपशम्स नं. ३६ । २, सबसि यश्कलङ्गः कीर्तने धर्मकीतिवचसि सुरपुरोषा न्यायवादेसपादः । इति समययुषणामेकतः संगतानां प्रतिनिधिरिष देवो राजते वादिराजः ।।
-इन्स्क्रपशम्स नं० ३९ । 1. जैन शिलालेखसंबह, प्रथम भाम, अभिलेखसंस्था ५४, महिलगप्रशस्ति, पद्य ४० । ४. हितबिनो यस्य नृणानुवात्त-वाचा मिबदा हित-रूप-सिद्धिः ।
बन्यो दयापासमुभिः सवाचासिद्धस्तताम्मूडीन य: प्रभावः॥ -कही, पञ्च ३८ । ५. Introduction of Yashodhar charitra, Dharwar Edition 1963,
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प्रनुजाचार्य एवं परम्मरापोषकापार्य : ८९