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सोमदेवके इस उपासकाध्ययननिरूपणपर सबसे अधिक प्रभाव आचार्य समन्तभद्रके रत्नकरण्ड श्रावकाचारका है । उसीके अनुसार इसमें सम्यग्दर्शन, अष्टमूलगुण, द्वादशव्रत, एकादश प्रतिभाएँ और समाधिमरणका कथन हैं । जटासिंहनन्दिके व रांगचरितका भी प्रभाव इस पर है ।
जिनसेनके महापुराण और गुणभद्रके आत्मानुशासनका भी प्रभाव उपासका ध्ययनपर दिखलाई पड़ता है ।
अध्यात्मतरंगिणी
इस ग्रन्थका दूसरा नाम योगमार्ग भी है । यह अध्यात्मविषयक रचना है । इसमें ४० पद्य हैं। एक प्रकारसे यह ग्रन्थ स्तोत्रशैलीमें लिखा गया है । आमाका स्वरूप, शक्ति, गुण, समुद्घात, चारित्र, आस्रव, बन्ध आदिका विश्लेषण करते हुए नित्य कर्मबन्धनरहित आत्माका स्वरूप निरूपित किया है। आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यानका भी संक्षेपमें कथन किया है। रचना बड़ी हु और उपदेशप्रद है ।
सोमदेवको काव्यप्रतिभा और पाण्डित्प
सोमदेव अद्वितीय प्रतिभाशाली कवि और दार्शनिक विद्वान् हैं। इनके गद्य और पद्य दोनों में शब्द- रमणीयत्ताके साथ अर्थरमणीयता विद्यमान है । उदात्त वर्णन, नवीन शब्दावलि और उच्च भावभूमिके कारण ही कविको 'कविकुलराज' उपाधि रही होगी । अप्रयुक्त और क्लिष्ट शब्दोंके प्रयोगके लिए सोमदेव प्रसिद्ध हैं । इनके मत से दोषरहित, माधुर्य आदि गुणयुक्त रसभाव समन्वित एवं अलंकृत रचना ही काव्यकी कोटिमें परिगणित की जाती है ।
आचार्य वादिराज
दार्शनिक, चिन्तक और महाकविके रूपमें वादिराज स्यात हैं । ये उच्चकोटिके तार्किक होनेके साथ भावप्रवण महाकाव्यके प्रणेता भी हैं। इनकी बुद्धिरूपो गायने जीवनपर्यन्त शुष्कतर्करूपी घास खाकर काव्य- दुग्धसे सहृदयजनोंको तृप्त किया है। इनकी तुलना जैन कवियोंमें सोमदेवसूरिसे और इतर संस्कृतकवियोंमें नैषधकार श्रीहर्षसे की जा सकती है ।
वादिराज द्रमिल या द्रविड़ संघके आचार्य थे । इसमें भी एक नन्दिसघ था, जिसकी अरुङ्गल शाखाके अन्तर्गत इनकी गणना की गयी है। अनुमान है कि अरुङ्गल किसी स्थान या ग्रामका नाम है, जहांकी मुनिपरम्परा रुजालान्वयके नामसे प्रसिद्ध हुई है ।
१. अध्यात्मतरंगिणी, सत्वनुशासनादिसंग्रहके अन्तर्गत, माणिकचन्द दि० जनवन्धमाच्य वि० सं० १९७५ ।
८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा