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ग्रन्थ में शुद्ध चैतन्यस्वरूपका प्रतिपादन किया गया है। ध्यान, मेद-विज्ञान,
कार-ममकारका त्याग, रत्नत्रयस्वरूप, शुद्ध चैतन्यरूपका विस्तारसे विवेचत किया गया है। बताया है कि शुद्ध चैतन्यस्वरूपका स्मरण ही समस्त सुख प्रदान करनेवाला, मोहको जीतनेवाला, अशुभ आस्रव एवं दुष्कर्मों का हर्ता, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और प्रन्यचारिक प्रतिसाधक और मनुष्यजन्मको सफलताका सूचक है ।
सौख्यं मोहजयोऽशुभास्रवहतिर्नाशोतिदुष्कर्मणा
मत्यंसं च विशुद्धता नरि भवेदाराधना तात्त्विकी । रत्नानां त्रितयं तुजन्म सफलं संसारभीनाशनं
चिद्रूपोर्मितिस्मृतेश्च समता सद्भ्यो यशः कीर्त्तनं ॥ आचार्यने बताया है कि मेदविज्ञानके बिना शुद्ध विरूपका ध्यान नहीं किया जा सकता है । जो भेद-विज्ञानका धारी है, उसे यह सारा संसार भ्रान्त प्रतीत होता है । अतएव भेदविज्ञान की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास करना चाहिये | आचार्यने लिखा है
उन्मत्तं प्रांतियुक्तं गतनयनयुगं दिग्विमूढं च सुप्तं
निश्चित प्राप्तमूर्च्छ जलवहनगतं बालकावस्थमेतत् । स्वस्याधीनं कृतं वा ग्रहिलगतिगत व्याकुलं मोहधूर्तः
सर्वं शुद्धात्मदृग्भीरहितमपि जगद् भाति भेदज्ञचित्तं । इस प्रकार इस तत्त्वज्ञानतरंगिणीमें शुद्ध चेतन्यकी प्रासिके लिये परद्रव्योंके त्यागका वर्णन किया है । आत्मतत्त्वको अवगत करनेके लिए यह ग्रन्थ उपादेय है ।
भक्तामर श्रुत, सरस्वती, शास्त्रमण्डल आदि पूजाग्रन्थों में तत्तदपूजाओंका संकलन किया गया है। पूजाष्टकमें आठ पूजाओंकी स्वोपज्ञ टीका है। समस्त कृति दश अधिकारों में विभक्त है। इसका रचनाकाल वि० सं० १५२८ है । अन्तिम पुष्पिका निम्न प्रकार है
" इति भट्टारकश्रीभुवनको सिशिष्य मुनिज्ञान भूषणविरचितायां स्वकृताष्टकदशकटीकायां विद्वज्जनबल्लभसंज्ञायां नन्दीश्वर द्वीपजिनालयाचन वर्णनीयेनाम दशमोऽधिकारः ॥"
१. त० तरंगि०, २५ २. वही, ६२ ।
प्रभुद्धाचार्य एवं परम्परापोवकाचार्य: ३५३