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मूर्ति स्थापित की है । वि० सं० १५१३ की चौबीसी मूर्ति आर्यिका संयमश्रीके लिये घोघामें प्रतिष्ठित को गयी थी । विधानन्दिके सम्बन्धमें निम्नलिखित अभिलेख उपलब्ध हैं
सं० १५३७ वर्ष वैशाख सुदि १० गुरौ श्रोमूलसंघे म० जिनचन्द्राम्नाये मंडलाचार्य विद्यानन्दि तदुपदेशं गोलारारान्वये पियू पुत्र
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" संवत् १५४४ वर्षे साल सुदि ३ सोमे श्रीमूलसंघे भ० श्रीविद्यानन्दि भट्टारक श्रीभुवनकीति भ० श्रीज्ञानभूषण गुरूपदेशात् हूंबड साह चांदा, भार्या रेमाई" ..२४ I
इन अभिलेखोंस स्पष्ट है कि विद्यानन्दिने मन्दिर प्रतिष्ठा और मूर्ति प्रतिष्ठा में पूर्ण योगदान दिया था। साह लखराजने पञ्चास्तिकायकी एक प्रति खरीद कर इन्हें अर्पित की थी | पंचस्तिकायकी पुष्पिकामें बताया गया है
"स्वस्ति श्रीमूलसंचे हुंबड ज्ञातीय सा० कान्हा भार्या रामति एतेषां मध्ये सा० लखराजेन मोचथित्वा पंचास्तिकायपुस्तकं श्रीविद्यानंदिने ज्ञानावर्णीकर्मक्षयार्थ दत्तं शुभं भवतु ।
इनके शिष्य ब्रह्माजिसने भडच में हनुमत्चरितकी रचना की है। इनके अन्य शिष्य छाडने वि० सं० १५९१ से भडचमें धन्यकुमारचरितकी एक प्रति लिखी है । इनके तृतीय शिष्य ब्रह्मघर्मपालने सं० १५०५ में एक मूर्तिकी स्थापना की है ।
विद्यानन्दिने सुदर्शन चरितकी रचना की है। इस ग्रन्थको प्रशस्ति में पूर्वाचायका स्मरण करते हुए अपनी गुर्वावह्नि अंकित की है। लिखा है
श्रीमूलसड्ये वरभारतीये
गच्छे
जात:
बलात्कारगणेऽतिरम्ये 1 प्रभाचन्द्रमहामुनीन्द्रः ॥
श्री कुन्दकुन्दाख्यमुनीन्द्रवंशे पट्टे सदीये मुनिपानन्दो भट्टारको भव्यसरोज भानुः । जातो जगत्त्रयहितो गुणरत्नसिन्धुः कुर्यात् सतां सारसुखं यतीशः ॥
१. भट्टारक सम्प्रदाय, जीवराज जैन मन्थमाला, प्रथाक ८, सोलापुर, वि० सं० २०१४ लेखांक ४२७-४३३ ।
२. वही, लेखांक २५७,३५६ ।
३. वही, लेखांक ४३५ ।
३७० : तोर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा