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आचार्यने धर्मका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है
धर्माद्वैरिजनस्य भेदनमहो धर्माच्छुभं सत्प्रभम् धर्माद्बन्धुसमागमः सुमहिमालाभः सुधर्मात्सुखम् । धर्मात्कोमलकम्रकायसुकला धर्मात्सुताः समता:
धर्माच्छीः क्रियतां सदा बुधजना शास्त्रेति धर्म: श्रियैः ।। पूजाग्रन्थोंमें तत्तत् विषयोंकी पूनाएँ निबद्ध हैं । हिन्दीरचनाओं में महावीरछन्दमें भगवान महावीरके सम्बन्धमें २७ पद्योंमें स्तवन हैं। विजयकातिछन्द एक ऐतिहासिक कृति है। यह कविके गुरु विजयकोतिकी प्रशंसामें लिखा गया है। इसमें २९ पद्य हैं। यह एक रूपककाव्य है। इसके नायक विजयकीर्ति हैं और प्रतिनायक कामदेव । इस रूपककाव्यमें अध्यात्मशक्तिको विजय दिखलायी गयी है। गरुन् ? पद्य हैं और बटारा दिजगकी निकर मानबाद किया गया है। नेमिनाथछन्दमें तीर्थकर नेमिनाथकै पावन जीवनका चित्रण २५ पद्योंमें किया है। तत्त्वसारगुहा में ९१ दोहे एवं चौपाइयाँ हैं । सात तत्त्वोंका वर्णन है । इस प्रन्थकी रचना दुलहा नामक श्रावकके अनुरोधसे की गयी है।
भट्टारक विद्यानन्दि आचार्य विद्यानन्दि बलात्कारगणकी सूरत-शाखाके भट्टारक थे। इस शाखाका आरम्भ भट्टारक देवेन्द्रकीतिसे हुआ है। ये भट्टारक पद्मनन्दिके शिष्य थे। पदमन्दिके तीन शिष्योंने तीन भट्टारक-परम्पराएँ आरम्भ की हैं। शुभचन्द्रन दिल्ली-जयपुरशाखा, सकलकोतिने ईडर-शाखा और देवेन्द्रकीतिने सूरत-शाखाको समृद्ध किया है । बलात्कारगण उत्सर शाखामें वि० सं० १२६४ में वसन्तकीर्ति, वि० सं० १२६६ में विशालकोति, तत्पश्चात् शुभकीति, वि० संवत् १२७१-१२९६ में धर्मचन्द्र, वि० सं० १२९६-१३१० में रत्नकीति, वि० सं० १३१०-५३८४ में प्रभाचन्द्र और वि० सं० १३८५-१४५० में पद्मनन्दि भट्टारक हुए। इन पद्मनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीर्ति वि० सं० १४९३ में पट्ट पर आसीन हुए। देवेन्द्रकीतिके शिष्य विद्यानन्दि हए । इन्होंने वि० सं० १४९९ की वैशाख शुक्ला द्वितीयाको एक चौबीसो मूर्ति, वि० सं १५१३ की वैशाख शुक्ला दशमीको एक मेरू तथा चौबीसो मूर्ति, वि. सं १५१८ को माघ शुक्ला पंचमीको दो मतियाँ, वि० सं० १५२१ को गैशाख कृष्णा द्वितीयाको एक चौबीसी मूर्ति एवं वि० सं० १५३७ की वैशाख शुक्ला द्वादशीको एक अन्य१. पाण्डवपुराण, १८.२०१ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३६९