SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 भीष्मप्रतिज्ञाके अनन्तर गुणवती या सम्पन्न हुआ । इस पत्नीसे परासरको पत्नीका नाम सुभद्रा था और इससे उत्पन्न हुए। इनमें धृतराष्ट्रका विवाह मथुरा निवासी कन्या गान्धारीके साथ सम्पन्न हुआ। इससे धृतराष्ट्रको उत्पन्न हुए। विदुरका विवाह देवक राजाकी पुत्री योजनगंधाके साथ परासरका विवाह व्यासनामक पुत्र उत्पन्न हुआ । व्यासकी धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ये तीन पुत्र राजा भोजकवृष्टिकी दुर्योधनादि १०० पुत्र कुमुदवत्तीके साथ सम्पन्न हुआ । धृतराष्ट्रने पाण्डु के लिए राजा अन्धकबुष्टिसे उनकी पुत्री कुन्तोकी याचना की । परन्तु पाण्डु के पाण्डुरोगसे पीडित होने के कारण अन्धकवृष्टिने उसे स्वीकार नहीं किया । पाण्डु कामरूपणी मुद्रिका द्वारा अपना रूप बदलकर कुन्ती के महलमें जाने-आने लगा । फलतः कुन्ती गर्भवती हुई और इस पुत्रका नाम कर्ण रखा गया । विधिवत् विवाह न होनेके कारण, कर्णको एक पेटीमें रखकर यमुना में प्रवाहित कर दिया गया और वह पेटी चम्पापुरीके राजा भानुको प्राप्त हुई। उसने उस तेजस्वी बालकको अपनी पत्नी राधाको दे दिया और राधाने उसका विधिवत् पालन किया । कालान्तर में अन्धकवृष्टिने कुन्ती और माद्री इन दोनों कन्याओं का विवाह पाण्डुके साथ कर दिया । कुन्तीसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ये तीन पुत्र तथा माद्रीसे नकुल और सहदेव ये दो पुत्र हुए। ये पाँचों ही पाण्डव कहलाये । कौरव और पाण्डवोंको द्रोणाचार्यने धनुर्वेदको शिक्षा दो । एक दिन पाण्डु माद्रीके साथ क्रीड़ार्थ वनमें गये और वहाँ आकाशवाणी सुनकर विरक्त हो गये । उन्होंने अपनी १३ दिन आयु शेष जानकर दीक्षा ग्रहण की और पांचों पुत्रोंको बुलाकर उन्हें राज्य देकर घुतराष्ट्रके अधीन कर दिया । कालान्तर में कौरवों और पाण्डवोंकी ईर्ष्या प्रज्वलित हुई। दुर्योधनते लाक्षागृह में पाण्डवोंको दग्ध करनेका प्रयास किया, पर वे सुरंगके रास्तेसे बच कर निकल गये और ग्रामानुग्राम देशाटन करने लगे । हस्तिनापुर लौट आने के पश्चात् अर्जुनका विवाह द्रौपदी और सुभद्राके साथ सम्पन्न हुआ । तदनन्तर युधिष्ठिर द्यूतक्रीड़ा में समस्त राज्य हार गये और १२ वर्षों तक उन्हें बनवासमें रहना पड़ा। अन्त में राज्यके लिए कौरवों और पाण्डका भयंकर युद्ध हुआ । यह कथा पच्चीस पर्थो में विभक्त है । २वें पर्व में युद्ध के पश्चात् पाण्डव दीक्षा ग्रहण करते हैं और दुर्धर तपश्च रणके अवसरपर उन्हें उपसर्गादि सहन करने पड़ते हैं। वे अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व मादि १२ भावनाओंका चिन्तन कर कर्मोकी निर्जरा करते हैं । फलतः युधिष्ठिर, भीम और अर्जुनको मुक्तिलाभ होता है एवं नकुल और सहदेवको सर्वार्थसिद्धिलाभ होता है । २६८ तीर्थंकर महावीर और उनकी लाचार्य-परम्परा
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy