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प्रकार आया है कि एक दिन पार्श्वनाथ अपने भवनके ऊपरी भाग पर बैठे हुए थे। उन्होंने देखा कि नगरके लोग' नगरसे बाहर चले जा रहे हैं । पूछने पर पता चला लि कमठ नापक साधु पगडीके बाहर आया है ! वह महान तपस्वी है ! लोग उसकी वन्दनाके लिए जा रहे है । पुष्पदन्तने अपने महापुराणमें उत्तरपुराणके अनुसार ही कथानक लिखा है, पर इस काव्यमें बताया गया है कि सभामें एक पुरुषने आकर सूचना दी कि नगरके बाहर एक मुभि आया है जो पंचाग्नि तप कर रहा है। अनुचरके वचन सुनकर पार्श्वनाथने अपने अवधिज्ञानसे जाना कि कमलका जीव नकसे निकलकर तप कर रहा है। वे वहां पहुंचे और उन्होंने हिंसक तप करनेसे उसे रोका और अधजले नाग-नागिनको णमोकार मन्त्र सुनाया।
उपर्यक्त कथानकको कविने उत्तरपुराणसे ज्यों-का-त्यों नहीं लिया है। अपनी कल्पनाका भी उपयोग किया है। इसी प्रकार पार्श्वनाथ पर उपसर्ग करने वालेका नाम उत्तरपुराण और पुष्पदन्तके महापुराणमें सम्बर आया है, जबकि इस महाकाव्यमें भतानन्द नाम बताया है। भगवान् पाश्वनाथको आहार देने वाले राजाका नाम उत्तरपुराणमें धन्य बताया है, जबकि इस काव्यमें धर्मोदय नाम आता है । इस प्रकार कथावस्तुका चयन परम्परा प्राप्त ग्रन्थोंसे किया गया है ।
कथावस्तुका गठन सुन्दर हुआ है । शैथिल्य नहीं है। शृगारिक वर्णन कथावस्तुको सरस बनाने में सहयोगी है। पूर्वभवोंकी योजनाने घटनाओंको विशृहलित नहीं होने दिया है । कविका मन मरुभसिके पश्चात् वचनाम चकवतीके जन्मक्री घटनाआके वर्णनमें अधिक रमा है। सभी घटनाएं शृखलाबद्ध हैं । कई जन्मोंके आख्यानोंको एक सूत्र में आबद्ध करनेका सफल प्रयास किया गया है। यद्यपि अनेक जन्मोके आख्यान-वर्णनसे पाठकका मन सब जाता है और उसे अगले जन्मसे सम्बन्ध जोड़ने के लिए भवालिको स्मरण रखना पड़ता है, तो भी कथामें प्रवाहकी कमी नहीं है। समस्त कथानक एक ही केन्द्रके चारों ओर चक्कर लगाता है। एक मनोवैज्ञानिक श्रुटि यह दिखलाई पड़ती है कि कमठ कई भवों तक एकान्तर वैर करता रहता है, जबकि मरुभूतिका जीव सदैव उसकी भलाई करता है। कभी भी वैर-विरोध नहीं करता। अन्तिम पाश्वनाथके भवमें भी वह कष्ट देता है। पार्श्वनाथको केवलज्ञान होनेपर ही उसका विरोध शान्त होता है । अतः इस प्रकारका एकाकी विरोध अन्यत्र बहुत कम आता है । 'समराइच्चकहा' में समरादित्यका वैर-विरोध भी अग्नि शर्माके साथ नौ भवों तक चला है । हाँ, अग्निशर्माको गुणसेनके भवमें समरादित्य अवश्य कष्ट देता है और उसको चिढ़ाता है। अतः रुष्ट होकर अग्निशर्मा निदान ९८ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्यपराम्परा