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करता है और नौ भवों तक वैर-विरोध चलता रहता है। पार्श्वनाथचरितमें भी इस प्रकारका वैर-विरोध पाया जाता है । मरुभूति कमठसे अपार स्नेह करता है, पर कमय उसके निश्छल प्रेमको आशंकाकी दृष्टिसे देखता है । अन्विति-गुण कथावस्तुमें निहित है। महाकाव्यत्व
शास्त्रीय लक्षणोंके अनुसार पार्श्वनाथचरित महाकाव्य है। इसमें १२ सर्ग हैं और मंगलस्तवनपूर्वक काव्यका आरम्भ हुआ है । नगर, वन, पर्वत, नदियाँ, स, ऊषा, साध्या, रजनी, चन्द्रोमय, प्रभास आदि प्राकृतिक दृश्योंके वर्णन, जन्म, विवाह, स्कन्धावार, सैनिक अभियान, युद्ध, सामाजिक उत्सव, शृगार, करुण आदि रस, हाव-भाव विलास एवं सम्पत्ति-विपत्तिमें व्यक्तियोंके सुखःदुखोंके उतार-चढ़ावका कलात्मक वर्णन पाया जाता है। तीर्थकरके चरित्रके अतिरिक्त राजा-महाराजा, सेठ-साहकार, किरात-भील, चाण्डाल आदिके चरित्रचित्रणके साथ पशु-पक्षियोंके चरित्र भी प्रस्तुत किये गये हैं । व्यक्ति किस प्रकार अपने चरित्रका विकास या पतन अनेक जन्मोंमें करता रहता है, इसका सुन्दर निरूपण किया गया है।
पाश्वनाथचरितमें सुन्दर रस-भावपूर्ण उक्तियोंके साथ विभिन्न संवेगोंका चित्रण आया है। समस्त श्रेष्ठ कवियोंने अपने काव्यको कलात्मक कल्पना और भावप्रवण बनानेके लिए नवरसोंका समाहार किया है। प्रस्तुत काव्यका अंगी रम शान्त है और अंग रूपमें शृगार, करुण, वीर, भयानक, वीभत्स और रौद्र रसोंका नियोजन पाया जाता है। श्रृंगार ४१६४, ८।१९, ८।२०, ८१३४, ८१३९, ८/४०, २१२, २।१३, २।१६ एवं ११७ में विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावके साथ आया है। करुणरस १६२ और २१८२ में समाहित है। भयानकरस ३१६६ और ३३६७ में पाया जाता है। रौद्ररस ७५४, ७५५, ७५८ और '७९९ में वर्तमान है। वीररस शताधिक पद्योंमें आया है। ७६५,७६६, ७७०, ७१२० एवं १२१ में वीररसका परिपाक बहुत ही सुन्दर हुआ है । शान्तरसका नियोजन इस काव्यमें अनेक स्थानोंपर हुआ है। __ चरित्रचित्रणकी दृष्टिसे भी यह महाकाव्य सफल है। नायक पार्श्वनाथका चरित्र अनेक भावोंके बीच उन्नतिशील होकर एक आदर्श उपस्थित करता है। प्रतिनायक कमठ ईया-द्वेष, हिंसा एवं अशुभ रागात्मक प्रवृत्तियोंके कारण अनेक जन्मोंमें नाना कष्ट भोगता है। नायक सदा प्रतिनायकके प्रति सहानुभूति रखता है। मरुभूतिके भवमें भ्रात-वात्सल्यका बेसा उदाहरण मिलना कठिन है। प्रकृतिचित्रण और अलंकारयोजनाकी दृष्टिसे भी यह काव्य सफल
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : ९९