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देवगतिमें जन्म लेनेवाला व्यक्ति यथेष्ट भोगोंको भोगनेके अनन्तर मनुष्यतिमें जन्म लेता है और वहाँ दिगम्बर दीक्षा धारणकर तपश्चर्या द्वारा कर्मोको नष्ट करता है। मुनिको ग्रीष्म और शीत ऋतुमें किस प्रकार विचरण करना चाहिए, इसका भी वर्णन आया है । आचार्यने लिखा है
डहिऊण य कम्मवणं उगोण तवाणलंण णिस्सेसं ।
आपुण्णभवं अणंतं सिद्धिसुहं पावए जोओ ॥ इस ग्रन्थकी १९१वी गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डकी ६८वी गाथा है। बहुत सम्भव है कि यह गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डसे अथवा ऐसे किसो अन्य स्रोतसे ली गयी है, जो दो दोनोंका एक ही आधार रहा हो। प्राकृत पञ्चसंग्रहवृत्ति
प्राकृतवृत्ति सहित पञ्चसंग्रहमें १. जीवसमास २. प्रकृतिसमुत्कीर्तन ३. बन्धस्तव, ४. शतक और ५ सप्तत्तिका ये पाँच प्रकरण संग्रहीत हैं। प्रकरणोंके क्रममें अन्तर है। पहला प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन, द्वितीय कर्मस्तवन, तृतीय जोवसमास, चतुर्थ शतक और पंचम सप्ततिका है। बंध्य, बन्धेश, बन्धक, बन्धकारण और बन्धभेद इन पांचोंके अनुसार संकलन कर व्याख्या की गयी है। व्याख्याकी शैली चणियोंकी शैली है। वत्तिकारने अपनी रचनामें 'कसायपाहड'की चणि और धवलाटीकाको शैलीका पुरा अनुकरण किया है। इनकी वृत्तिको देखनेसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि वृत्तिकार सिद्धान्तशास्त्रके अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने अनेक नयी परिभाषाएँ अंकित की है। यद्यपि सभी गाथाओंपर वृत्ति नहीं लिखी है, पर जिन गाथाओं पर वृत्ति लिखी गयी है, उन गाथाओंमें अनेक नयी बातें बतलायी गयी है। इसका पहला प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन है । इसमें प्रकृतियोंके नामोंका समुकीर्तन करनेके अनन्तर चौदह मार्गणाओंमें कर्मप्रकृतियोंके बंधका कथन आया है। आचार्यने सभी विषयमें प्रमाण, नय और निक्षेपद्वारा वस्तुके परीक्षणको चर्चा की है। प्रथम प्रकरण श्रुतवृक्ष नामका है, जिसमें श्रुतज्ञानके समस्त भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है। लिखा है
प्रमाण-नयनिक्षेपर्योऽयों नाभिसमीक्ष्यते ।
युक्तञ्चायुक्तपद् भाति तस्यायुक्तं सयुक्तिवत् ॥ १. धम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, गाथा १८१ । २. प्राकृतवृत्तिसहित पञ्चसंग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ काशीके पंचसंग्रहमें प्रकाशित, पद ५,
पृ० ५४१ ।
१२४ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा