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ज्ञानको प्रमाण माना है और नयको वस्तुके एक अंशका बोधक बनाया हैज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते । नयों ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽथंपरिग्रहः ॥
ग्यारह अंग और चौदह पूर्वको विषयवस्तुका विस्तारसे वर्णन आया है । प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्त्तनमें १६ गाथाएँ हैं और प्राकृत में वृत्ति लिखी गयी है ।
कर्मस्तव संग्रह में ८८ + ९ गाथाएं हैं। इस प्रकरणमें गुणस्थानक्रमानुसार व्युच्छितिका कयन आया है । सान्तर निरन्तर सादि-अनादि आदि प्रकृतियोंके कथन के पश्चात् बन्धव्युच्छ्रुति सम्बन्धी ९ गाथाओंकी वृति भी लिखी है । प्रारम्भकी ८८ गाथाओंपर कोई वृत्ति नहीं है ।
तृतीय प्रकरण जीवसमास नामका है। इसमें १७६ गाथाएँ हैं । आरम्भकी ५ गाथाओं पर वृत्ति है और शेष गाथाओंपर वृत्ति नहीं लिखी गयी है । पुद्गल द्रव्यके छः भेद-काल-द्रव्य, बीस प्ररूपणा, गुणस्थानका लक्षण, १४ गुणवेद स्थानोंके नाम, गुणस्थानोंके स्वरूप, जीवोंकी गतियाँ, काय, ज्ञान, प्राण, आदि सभी जीवसमासोंके लक्षण भी बतलाये गये है । लेश्याका स्वरूप, भेद एवं प्रत्येक लेश्यावालेकी प्रवृत्ति और परिणतिका भी वर्णन आया है। ज्ञानमार्गणा ज्ञानके भेदोंका विवेचन किया है ।
शतकसंग्रह नामक चतुथं प्रकरण है । इस प्रकरणमें १३९ + १९ गाथाएँ हैं और सभी गाथाओंोंपर वृत्ति भी लिखी गयी है । इसमें एकेन्द्रिय आदि जीवोके भेद या जीवसमास वर्णित हैं । गुणस्थानोंमें जीवोंकी संख्याका प्रतिपादन करनेके अनन्तर प्रत्येक गतिमें बन्ध होनेवाली प्रकृतियोंका विवेचन किया गया है ।
पञ्चम सप्ततिका नामक प्रकरण है। इसमें ९९ गाथाएँ हैं । इस प्रकरणमें विभिन्न बन्धभेदोंका वर्णन किया है। योग, उपयोग, लक्ष्या आदिकी अपेक्षा कर्मबन्धके भेदों या भंगोंका वर्णन किया है । इस प्रकार यह 'पंचसंग्रह ' ग्रन्थ कर्मशास्त्रको दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है ।
पद्मनन्दि द्वितीय
पद्मनन्दि द्वितीय पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिकाके रचयिता हैं । इन्होंने अपने गुरु वीरनन्दिको नमस्कार किया है। अतः 'जंबदीयपण्णत्त' के कर्तासि ये भिन्न हैं, क्योंकि जंबूदीवपणत्तिके कर्ताक गुरुका नाम वलनन्दि और प्रगुरुका नाम वीर१. पंचसंग्रहवृत्ति, पद्य ६, पृ० ५४२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १२५
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