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योनियोंमें पर्याप्त कष्ट होता है । जो इन कष्टोंसे मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, वह धर्मरसायनका सेवन करे। आचार्यने इसमें वीतराग और सरागी देवोंकी भी परीक्षा की है, तथा बतलाया है कि जिसे अपने हृदयको राग-द्वेषसे मुक्त करना है, उसे वीतरागताका आचरण करना चाहिए। विषय-वासनाग्रस्त सांसारिक प्रपञ्चोंसे युक्त, स्त्रीके अधीन, रागी, द्वेषी परमात्मा नहीं हो सकता है | आचार्य ने इस परमात्म-तत्वका विवेचन करते हुए लिखा हैकामग्गतत्तचित्तो इच्छयभाणी तिलोवणास्य । जो रिच्छी भत्तारो जादो सो कि होइ परमप्पो ॥ जइ एरिसो विमूढो परमप्पा वृच्चए एवं तो खरघोड़ाईया सव्वं चि य होंति परमप्पा' ॥
सच्चा देव क्षुधा, तृषा, तृष्णा, व्याधि, वेदना, चिन्ता, भय, शोक, पीड़ा, राग, मोह, जन्म-जरा-मरण, निद्रा, स्वेद आदि दोषोंसे रहित होता है । सिंहासन, छत्र, दिव्यध्वनि, पुष्पवृष्टि, नमर, भामण्डल, दुन्दुभि आदि बाह्य चिह्नोंसे युक्त, सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी देव होता है । ९४वीं गाथासे १३८वीं गाथा तक सर्वज्ञदेवकी परीक्षा की गयी है और विभिन्न तर्कोंसे अर्हन्तको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। धर्मके दो भेद हैं---सागार और अनगार | इन दोनों धर्मोंका मूल सम्यक्त्व है । इस सम्यक्त्वकी प्राप्ति जिसे हो जाती है, उसके कर्म-कलङ्क नष्ट होने लगते है । सम्यक्त्वरूपी रत्न के लाभसे नरक और तिर्यञ्च गति में जन्म नहीं होता । श्रावकाचारके १२ भेद बतलाए हैं - पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । इस प्रकार १२ व्रतोंका कथन आया है । देवता, पितृ, मन्त्र, औषधि, यन्त्र आदिके निमित्तसे जीवोंकी हिंसा न करना अहिंसाणुव्रत है । असत्य वचनोंके साथ दूसरेको कष्ट देनेवाले वचन भी असत्यको ही अन्तर्गत है, अतः ऐसे वचनोंके व्यवहारका त्याग करना सत्याणुव्रत है । संसारको समस्त स्त्रियोंकी माता, बहिन और पुत्रियोंके समान समझकर स्वदार सेवनमें सन्तोष करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। धन-धान्य, द्विपद, चतुष्पद, खेत आदि वस्तुओंका नियत परिमाण कर शेषका परित्याग करना परिग्रहपरिमाणव्रत है। इस प्रकार गुणयत और शिक्षाव्रतों का भी वर्णन किया है ।
आचार्यने दान देने पर विशेष जोर दिया है । दान के प्रभावसे सभी प्रकार के दुःख-दारिद्र्य नष्ट हो जाते हैं और अणिमा, महिमा आदि अष्ट ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।
१. घम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पद्य - १०४, १०५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १२३