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मुल्य इस लघुकाय ग्रन्थमें प्रतिपादित हैं। आचार्य धर्मको त्रिलोकका बन्ध बतलाते हुए कहते हैं कि इसकी सत्तासे ही व्यक्ति पूजनीय, त्रिभुवनप्रसिद्ध एवं मान्य होता है___ आरम्भमें ही आचार्यने जन्म-मरण और दुःखको नाश करनेवाले इहलोक, परलोकके हितार्थ धर्मरसायनके कहनेकी प्रतिज्ञा की है। धर्म त्रिलोकबन्धु है, धर्म शरण है। धमसे ही मनुष्य त्रिलोकमें पूज्य होता है। धर्मसे कुलकी वृद्धि होती है, धर्मसे दिव्यरूप और आरोग्यत्ता प्राप्त होती है। धर्मसे सुख होता है और धर्मसे ही संसारमें कीर्ति प्राप्त होती है। आचार्य ने बताया है
धम्मो तिलोयबंधू धम्मो सरण हवे तिहुयणस्स। घम्मेण पुषणोओ होइ णरो सब्बलोयस्स ॥ धम्मेण कुलं विउलं धम्मेण य दिब्बरूवमारोग्ग । धम्मेण जए कित्ती धम्मेण होइ सोहगां ।। वरभवणजाणवाहणसयणासणयाणभोयणाणं च ।
वरजुवइवत्थुभूसण संपती होइ धम्मेण ॥ अर्थात् धर्मके प्रभावसे धन-वैभव, भवन-चाहन, शय्या, बासन, भोजन, सुन्दर पत्नी, वस्त्राभूषण आदि समस्त लौकिक सुख-साधनोंकी प्राप्ति होती है। इस घमरसायनको सामान्यतया उपादेय वणित करनेपर भी रस-भेदसे उसको भिन्नता उपमाद्वारा सिद्ध होती है । यथा
खीराई जहा लोए सरिसाई हति वाणामेण । रसभेएण य ताई वि णाणागुणदोसजुत्ताइ ।। काई वि खीराइं जए हवंति दुक्खावहाणि जीवाणं ।
काई वि तुठ्ठि पुछि करति वरवण्णमारोग्ग । जिस प्रकार वर्णमात्रसे सभी दूध समान होते हैं, पर स्वाद और गुणको दृष्टिसे भिन्नता होती है, उसी प्रकार सभी धर्म समान होते हैं, पर उनके फल भिन्न-भिन्न होते हैं। आक-मदार या अन्य प्रकारके दूधके सेवनसे व्याधि उत्पन्न हो जाती है, पर गोदुग्धके सेवनसे आरोग्य और पुष्टि-लाभ होता है। इसी प्रकार अहिंसाधर्मके आचरणसे शांतिलाभ होता है, पर हिंसाके व्यवहारसे अशान्ति और कष्ट प्राप्त होता है ।
आचार्यने चारों गतियोंके प्राणियोंको प्राप्त होनेवाले दुःखोंका मार्मिक विवेचन किया है। मनुष्य, तिर्यञ्च, नारकी और देव इनको अपनी-अपनी १. धम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थगला, पध ३,४,५ २. वही, पद्य-९, १० १२२ : तीर्थंकर महावीर और उनको श्रापार्यपरम्परा