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इस पद्य में माघनन्दिको समद्रके समान गम्भीर, कल्पवृक्षके समान दानशील, सूर्यके समान तेजस्वी, चन्द्रमाके समान कलपवान्, मन्दराचल के समान धैर्यशील और समस्त पृथ्वी में निर्मल यशस्वी प्रकट किया गया है। ७. सप्तम माघनन्दि श्रीधरके शिष्य हैं। श्रवणबेलगोलाके ४२वें अभिलेखमें बताया है कि ये माधनन्दि सिद्धान्तचक्रेश्वर कहलाते थे। ८. अष्ठम माधनन्दि मूलसंघ देशोय. गण पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वयके हैं। इनका निर्देश निम्नलिखित अभिलेख में आया है__ 'स्वस्ति थोमलसंघदेशियगण-पोस्तकगच्छद कोण्डकुन्दान्वय कोल्लापुरद सावन्तन बसदिय प्रतिबद्धद श्री माघनन्दि-सिद्धान्त-देवर शिष्यरु शुभचन्द्र
विद्य-देवर शिष्यरप्प मागरणन्दि-सिद्धान्तदेवरिगे वसुधैक-बान्धव श्री करणाद रेचिमय्यदण्डनायकरु शान्तिनाथ-देवर प्रतिष्ठेयं माडियारा पूर्वक कोट्टरु।" ९. नवम माधर्नान्द योगीन्द्र हैं। इन्होंने शास्त्रसारसमुच्चय नामक ग्रन्धको रचना की है। इस ग्रन्थ के अन्त में एक पद्य अंकित है, जिसमें माधनन्दि योगीन्द्रको सिद्धान्ताम्बोधिचन्द्रमा' कहा गया है.---
श्रीमाधनन्दियोगीन्द्रः सिद्धान्ताम्बोधिचन्द्रमाः।
अचीकरद्विचित्रार्थ शास्त्रसारसमुच्चयम् ॥ कर्णाटककवि चरितेके अनुसार एक माघनन्दिका समय ई० सन् १२६० है और उन्होंने इस ग्रन्थपर एक कन्नड़-टीका लिखी है तथा ये हो माधनन्दि श्रावकाचारके रचयिता भी हैं। इससे अवगत होता है कि शास्त्रसारसमुच्चयके कर्ता ई० सन् १२६० के पहले हुए हैं।
मद्रास ओरियण्टल लाइब्रेरी में प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण या जिनसंहिता नामका एक ग्रन्थ है, जिसके प्रारम्भमें लिखा है
श्रीमाघनन्दिसिद्धान्तचक्रवतित्तनूभवः ।
कुमुदेन्दुरहं वच्मि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणम् ।। और अन्त में लिखा है'इति श्रीमाघनन्दिसिद्धास्तचक्रवर्तितनूभवचतुर्विधपांडित्यचक्रवर्तिश्रीवादिकुमुदचन्द्रमुनीन्द्रविरचिते जिनसंहिताटिप्पणे पूज्यपूजकपूजकाचार्यपूजाफलप्रतिपादनं समाप्तम् ।।' ___ इससे स्पष्ट है कि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणके कर्ता कुमुदचन्द्र माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य थे। १. जैन शिला लेख संग्रह, अभिलेखसंख्या ४७१ पृ० ३७५ । २८४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा