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संवत् १५१३ के मूर्ति लेखमें उनका श्रीदेवेन्द्रफीति दीक्षित आचार्य श्रीविद्यानन्दिके रूपमें उल्लेख आया है। संवत् १५३७ के मूर्तिलेख में देवेन्द्रकीर्तिपदे प्रतिष्ठित विद्यानदिको बताया है। इससे स्पष्ट है कि वे संवत् १५१३ के पश्चात् और संवत् १५३७ के पूर्व भट्टारक गद्दी पर आसीन हो चुके थे। श्री जोहरापुरकरने वि० सं० १४९९ - १५३७ उनका भट्टारककाल माना है ।
विद्यानन्दने पर्याप्त भ्रमण किया था। पट्टावली के अनुसार उन्होंने सम्मेदशिखर, चम्पा, पावा, उर्जयन्तगिरि आदि समस्त तीर्थक्षेत्रोंकी यात्रा की थी । इनका सम्मान राजाधिराज महामण्डलेश्वर वज्राङ्ग- गङ्ग-जयसिंह- व्याघ्र-नरेन्द्र आदिके द्वारा किया गया था । इनके द्वारा प्रतिष्ठित करायी गयी मूर्तियोंमें बहुजाति श्रावकों के उल्लेख अधिक आये हैं । अन्यजति और वर्ग सम्बन्धी निर्देशों काष्ण न पड़ जाति, इकबालजाति, गोलश्रृंगारवंश, पल्लोवालजाति एवं अग्रोतकान्वय ( अग्रवाल) के नाम प्राप्त होते हैं ।
पट्टा वलियों, मूर्तिलेखों एवं ग्रन्थप्रशस्तियोंके आधारपर विद्यानन्दिका समय वि० सं० १४९९ १५३८ पाया जाता है । इस कार्यकालके भीतर उन्होंने धर्मप्रचारके लिये धर्मोपदेशके साथ मूर्ति एवं मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा करायी । रचनाएँ
भट्टारक विद्यानन्दिके द्वारा सुदर्शनचरितनामक चरितकाव्यकी रचना गन्धार नगर या गन्धारपुरीमें की गयी है। इस गन्धार नगरका उल्लेख अन्य आचार्यों के ग्रन्थोंमें भी मिलता है । सम्भवतः यह सूरत नगरका ही नामान्तर है। इस कृतिकी रचना वि० सं० १३५५ के लगभग सम्पन हुई है ।
इस ग्रन्थ में पुण्यपुरुष सुदर्शनका आख्यान वर्णित है । कथावस्तु १२ अधिकारोंमें विभक्त है। प्रथम और द्वितीय अधिकारमें तीर्थंकर महावीरका विपुलाचलपर समवशरण प्रस्तुत होता है और उसमें गोतम गणधर उनसे धर्मविषयक प्रश्न पूछते हैं। स्तवनप्रकरणमें गणधरोंके नमस्कारके पश्चात् - कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पात्रकेसरी, अकलंक, जिनसेन, रत्नकीर्ति, गुणभद्र, प्रभा चन्द्र, देवेन्द्रकोति और आशाधरका संस्मरण किया है। श्रेणिक जिनेन्द्रकी पूजा-स्तुतिके अनन्तर गौतम गणधरसे पञ्चम अन्तः कृतु केवली सुदर्शनमुनिके चरित वर्णनकी प्रार्थना करते हैं। गौतम गणधर उस चरितका वर्णन करते है । विद्यानन्दिने इस प्रकार तृतीय अधिकारमें सुदर्शनके जन्ममहोत्सवका वर्णन किया है। चतुर्थं अधिकारमें सुदर्शन मनोरमा विवाह, पंचममें सुदर्शनकी श्रेष्ठिपद प्राप्ति, षष्ठ में कपिलका प्रलोभन तथा रानी अभयमतीका व्यामोह, सप्तममें अभयाकृत उपसर्ग निवारण और शीलप्रभाव वर्णन, अष्टम में सुदर्शन और
३७२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी श्राचार्य - परम्परा