SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय न करनेके कारण अभूतार्थ कहलाता है । शुद्ध नय यथावस्थित वस्तुको विषय करनेके कारण भूतार्थं कहा गया है और यही कर्मक्षयका हेतु है । वस्तुका यथार्थस्वरूप अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन जो वचनों द्वारा किया जाता है, वह व्यवहारके आश्रयसे ही । मुख्य और उपचारके आश्रयसे किया जाने वाला सब विवरण व्यवहारके ऊपर ही आश्रित है । इस दृष्टिसे व्यवहार उपादेय माना गया है । आगे शुद्धनयके आधारपर रत्नत्रयका स्वरूप बतलाया गया है । समस्त परिग्रहका त्यागी मुनि भी यदि सम्यग्ज्ञानसे रहित है, तो वह स्थावरके तुल्य है । सम्यग्ज्ञान द्वारा ही समस्त वस्तुओंकी यथार्थ प्रतीति होती है, जो जीवात्मा अपनेको निरन्तर कर्मसे बद्ध देखता है, वह कर्मबद्ध ही रहता है, किन्तु जो उसे मुक्त देखता है, वह मुक्त हो जाता है । है समतारूप अमृतके पानसे वृद्धिंगत आनन्दको प्राप्त आत्मन् ! तू बाह्यत्तत्वमें मत जा, अन्तस्तत्त्वमें जा । जब तक चैतन्यस्वरूपकी उपलब्धि नहीं होती है, तभी तक बुद्धि आगमके अभ्यास में प्रवृत्त होती है, पर जैसे ही उक्त चैतन्यस्वरूपका अनुभव प्राप्त होता है, बेसे ही वह बुद्धि आगमको ओरसे विमुख होकर उस चैतन्यस्वरूपमें ही रम जाती है । अतएव जीवको शाश्वतिक सुखकी प्राप्ति होती है । जिस आत्मज्योति में तीनों काल और तीनों लोकोंके सब ही पदार्थ प्रतिभासित होते हैं तथा जिसके प्रकट होनेपर समस्त वचनप्रवृत्ति सहसा नष्ट हो जाती है, जो चैतन्यरूप तेज भय, निक्षेप और प्रमाण आदि विकल्पोंसे रहित, उत्कृष्ट, शान्त एवं शुद्ध अनुभवका विषय है, वही मैं हूँ । इस प्रकार आत्मानुभूतिका विवेचन विस्तारपूर्वक किया है । १२. ब्रह्मवर्म रक्षावत -- इस अधिकारमें २२ पद्य है । आरम्भमें ब्रह्मचर्य का अर्थ बतलाते हुए लिखा है कि ब्रह्मका अर्थ विशुद्ध ज्ञानमय आत्मा है । उस आत्मामें चर्यं अर्थात् रमण करना ब्रह्मचर्य है । यह निश्चयब्रह्मचर्य की परिभाषा है । इस प्रकारका ब्रह्मचर्य इस प्रकारके मुनियोंको प्राप्त होता है जो शरीरसे निर्ममत्व रखते है तथा सभी प्रकारसे जितेन्द्रिय होते हैं। ब्रह्मचर्यके विषय में यदि कदाचित् स्वप्न में भी कोई दोष उत्पन्न होता है तो वे रात्रिविभागके अनुसार आगमोक्त विधिसे उसका प्रायश्चित्त करते हैं। संयमी मन हो इस प्रकारके ब्रह्मचर्यंका आचरण कर सकता है । इस अधिकारमें ब्रह्मचर्य पालनको विधि, ब्रह्मचर्यका महत्व एवं ब्रह्मचर्यमें विघ्न करनेवाले कारणों का विवेचन किया है । १३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy