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________________ कविन जिनदत्तकी इम विरक्तिको बड़े कौशलके माथ अनुरक्तिके रूपम परिवर्तित किया है। कवि पाहता है कि एक दिन जिनदत्त अपने मित्रोंके साथ कोटिकूट चैत्यालयमें दर्शनार्थ गया । वहाँ मीढ़ियां चढ़ते समय दरवाजेके पास एक स्त्री-मति पर उसकी दृष्टि पड़ी। ग्रह मनि अत्यन्त रमणीय थी। उसका अंगविन्याम अमृत और मधुसे निर्मित हुआ था । इन अनिन्द्य मौन्दर्यका अवलोटनक: जिन्दन म हो गया और अपनी सुरतुध स्त्रो बैठा । जब वह इस अवस्थामें घर लौटा, तो पिता जीवदेवने चिन्तित होकर उस मूतिके शिल्पीको बुलाया और पूछा कि मति किम नारी की है ? शिल्पीने बनलाया वि यह मूर्ति चम्पानगरीक विमल बेठको पुत्री विमलमत्तीकी है। फलत: प्रेमाकर्षण द्वारा जिनदत्तका पाणिग्रहण विमलमतीके माथ सम्पन्न हो गया । दुर्गण और व्यसन व्यक्तिमें किस प्रकार प्रविष्ट होते हैं. इस तथ्यांगको कविने इस काव्यक तृतीय मर्ग में अभिव्यक्त किया है। जिनदन अपने मित्रों के समर्गके कारण द्य त खेलना मीम्स लेता है और शानः शनः माग द्रव्य द्य तदेवकी भेंट हो जाता है। कवि नाटकके समान घटनाचक्रको दूसरी ओर मोड़ता है और जिनदतको प्रमार्जनके हेतु विदेश भेज देता है और वहां जिनदत्त बहन-सा धन अर्जन करता है तथा राजा-महाराजाओंस मम्पर्क स्थापित कर श्रीमती नामक गजकूमारीकं. साथ विवाह सम्पन्न करता है। समुद्रपथम वापन लौटते समय श्रीमतीवं सौन्दयंसे आकृष्ट हो ममुद्रदत्त नामका व्यापारी जिनदनको समुद्रमें गिरा देता है। जिनदत्त एक काष्ठकी पट्टिकाके सहारे समुद्रको पार करने लगा। आकाशमार्गसे जाते हा विद्याधर उसके बल-पौरुषसे प्रभावित हाए । अतः उन्होंने उसे अपने विमानमें जेठा लिया और अपने अधिपनि अयोकथोकी पुत्री शृङ्गारमतीक. साथ जिनदत्तका विवाहसंस्कार सम्पन्न करा दिया। कुछ दिनों पश्चात् जिनदत्त अपनी पत्नी शृङ्गारमतीक साथ चम्पापुरमें आया और रातको एक वाटिकामें निवामके हेतु ठहर गया । मध्यपत्रिके समय शृङ्गाग्मतीको उसी वाटिकामे पोते छोड़ बह कहीं चल दिया। शृङ्गारमती भी चम्पापुरके एक चैत्यालयमें निवास करने लगो । यहाँ विमला और श्रीमती भी उसे मिल गयीं । जिनदत्त वामनका रूप धारण कर नगर में अपनी गान-विद्या द्वारा लोगोंका अनुरञ्जन करने लगा। राजदरवारमैं उसे गायकका पद प्राप्त हो गया । एक दिन किसी व्यक्तिने राजाके यहाँ सूचना दी कि इस नगरके जिनालय में तीन परम सुन्दरियाँ निवास करती हैं, जो न कभी हंसती हैं और न कभी परपुरुषसे बात-चीत ही करती हैं। जिनदत्तने राजासे प्रतिज्ञा की कि प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १,
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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