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________________ किलाद्भिक्षार्थी स्वयमलभमानोऽपि मुचिरं न सोडव्य किंवा परमिह परैः कार्यवशतः ॥ मरण सम्बन्धी पद्योंमें जन्म और मरणका अविनाभाव सम्बन्ध बनाते हुए मृत्युको अनिवार्यता सिद्ध की गयी है । योनिन्दा - प्रसंग में प्रकारान्तरसे विपयामाकी ही निम्बा की गयी है । जो नारी विषय-वासनाको जागुन करती है, आध्यात्मिक दृष्टिसे वह त्याज्य है। समीचीन गुम्का स्वरूप बतलाते हुए मंथम, त्याग और तपस्याका महत्व बतलाया है । संयमण राज्यके संरक्षणार्थं जिस प्रकार बाह्य शत्रुओं का जीवना आवश्यक है, उसी प्रकार अन्तरंग शुओं का भी मन बन्दरके समान चपल है, अतएव उसे आत्मनियन्त्रण में रखनेके लिये रूप वृक्ष पर विचरण कराना चाहिये । मनको वनमें करनेका एकमात्र साधन श्रुतज्ञान है। इसी प्रकार पायविजय. संसारकी अनित्यता, ज्ञानाराधना, तपाराधना, परियाराधना आदिका वि पण किया है। गुणभद्राचार्यने अनुप्रास अलंकारका भी सुन्दर नियोजन किया है। अन्य अलंकारोमं उपमा | पद्य ८१ अतिशयोक्ति पत्र ॐ९ ), रूपक ( प ७८ १. अपह्न ुनि ( प ८६ ) अप्रस्तुतप्रशंसा (पद्य १३९ ) प ( पद्य १०९ । विभावना ( प १०२ ) आदि अलंकाका संयोजन पाया जाता है। अनुप्रास की छटा दर्शनीय है ง प्राज्ञः प्राप्त समस्त शास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः प्रास्ताश: प्रतिभापरः प्रभवान् प्रागेव दृष्टोत्तर 1 प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया यामकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः || जिनदत्तचरित इस प्रबन्ध-काव्य में ९ सर्ग हैं। समस्त काव्य अनुष्टुप् छन्दमें लिखा गया है | सर्गान्तमें छन्द-परिवर्तन भी हुआ है। अंगदेशान्तर्गत वसन्तपुर नामके नगरमें सेठ जोवदेव और उनकी पत्नी जीवमाका पुत्र जिनदत्त है । अन्य जैन महाकाव्योंके समान कविने इस काव्यके आदि में भी पुत्र प्राप्तिकी चिन्ता एव पुत्रका महत्त्व प्रतिपादित किया है। जिनदत्त शैशव समाप्त कर जत्र पूर्ण युवक हुआ, तो उसका मन संसारके विषयोस विरक्त रहने लगा । " १. आत्मानुशासन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर, पद्य ११८ । S वहीं, पश्च ५ । १४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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