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तत्त्वार्थ से सम्बद्ध होनेपर भी यथार्थ श्रद्धा नहीं है, क्योंकि वहाँ तत्त्वार्थकी उपलब्धि नहीं है । जिस प्रकार बीजके बिना वृक्ष न उत्पन्न होता है, न अवस्थित रहता है, न बढ़ता है और न फलोंको उत्पन्न कर सकता है, उसी प्रकार मम्यग्दर्शनके विना ज्ञान और चारित्र भी यथार्थ स्वरूपमें न उत्पन्न हो सकते है. न अबस्थित रह सकते हैं और न मोक्षरूप फलकी प्राप्ति ही हो मक्रनी है। अतएव चागें आराधनाआमें सम्यग्दर्शनकी आगवना प्रधान है ।
देवकी प्रबलताका विश्लेषण करते हुए इन्द्र और कृपभदेव तीर्थकरका उदाहरण दिया गया है । बताया है कि इन्द्रका वृहस्पति मन्त्री है, शस्त्र वज्र है, मनिक दब हैं, ऐरावत हाथी वाहन है और साक्षात् विष्णुका अनुग्रह भी है, तो भी इन्द्र शत्रुओं द्वारा पराजित होता है, यह अष्टकी ही क्रीड़ा है । यदि पूर्वापाजित पूण्य शप है, नो प्राणोंके लिये आय. धन-सम्पत्ति एवं शरीगदि सभी अनुकूल सामग्री प्राप्त हो जाती है। और यदि पुण्य शेष नहीं है, तो प्राणी उसकी प्राप्तिके लिये कितना भी परिश्रम क्यों न करें, उसे कुछ भी प्राप्त नही होला ! पाया है
नेता यत्र बृहस्पनि प्रहरणं बच्च मुगः मनिकाः म्वर्गा दुर्गमनुग्रह: बल हरेरोगवणो वारण । इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि बाभद्भग्न: परैः सङ्गरे
तद्व्यक्तं ननु देवमेव शरणं धिग्धिम्वृथा पौरुपम् ॥ दुष्ट देवकी प्रबलता बतलाते हुए ग्रन्थकारने आदि तीर्थकरका उदाहरण प्रस्तुत किया है और बतलाया है कि जिन ऋषभजिनेन्द्रने समस्त साम्राज्यको तृणके समान तुच्छ समझ कर छोड़ दिया था और तपस्याको स्वीकार किया था । वे ही भगवान क्षुधित होकर दीनकी तरह दूमरोंके धरोपर घूमे, पर उन्हे भोजनप्राप्त नहीं हुआ, जब आदिदेव गर्भम आये थे, तब उसके छह महीने पूर्वसे ही इन्द्र हाथ जोड़कर दासके समान सेवामें संलग्न रहा । इधर इनका पुत्र भरत चक्रवर्ती बौदह रल और नौ निधियोंका स्वामो था । युगके आदिमें स्वयं सष्टिके स्रष्टा थे, फिर भी उन्हें क्षधाके वशमें होकर छह महीने तक पृथ्वी पर धूमना पड़ा । यह उस देवकी प्रबलता नहीं तो और क्या है
समस्तं साम्राज्यं तणमिव परित्यज्य भगवान्
तपस्यन् निर्माण: क्षुधित इव दीन: परगृहान् । १. आत्मानुशासन, अन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, श्लोक ३२ ।।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १३