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इस पद्यमें चन्द्रमाको लक्ष्य बनाकर ऐसे साधुको निन्दा की गयी है, जो साधुवेष में रहकर साधुत्वको मलिन करता है । यदि व्रत - संयमादिसे युक्त दम्भो साधु न होता, तो किसीका ध्यान हो उस ओर न जाता ।
सत्यं वदात्र यदि जन्मनि बन्धुकृत्यमाप्तं त्वया किमपि बन्धुजनाद्धितार्थम् । एतावदेव परमस्ति मृतस्य पश्चात् संभूय कायमहितं तव भस्मयन्ति || '
हे प्राण ! यदि तूने संसार में भाई-बन्धु आदि कुटुम्बी जनोंसे कुछ भी हितकर चन्धुत्वका कार्य प्राप्त किया है, तो उसे सत्य बतला । उनका इतना ही कार्य है कि मर जानेके पश्चात् वे एकत्र होकर तेरे अहितकारक शरीरको जला देते है ।
इस पद्य में अन्योक्ति द्वारा यह बतलाया गया है कि बन्धुजन राग-द्वेषके कारण ही बनते हैं । अतएव बन्धुजनोंमें अनुरक्त रहकर आत्म-कल्याणसे बञ्चित रहना उचित नहीं ।
सुख-दुःखविवेकके अन्तर्गत बताया गया है कि सातावेदनीय कर्मके उदयमे प्राणीको कुछ कालके लिये जो सुखका अनुभव होता है, वह यथार्थ सुख नहीं है, किन्तु सुखका आभास है । इन्द्रियजन्य विषयसुख विद्य ुतके प्रकाशके समान विनश्वर है । विषय-तृष्णाके कारण हो प्राणी संतप्त रहता है और इस संतापको दूर करनेके लिये विषयोंकी ओर अनुधावित होता है । अतएव इन्द्रिजन्य विषयसुख दुःख ही है । अतः परद्रव्योंकी अपेक्षा रहनेके कारण पराधीन, अनेक प्रकारकी बाधाओं सहित, प्रतिपक्षभूत असातावेदनीय आदिके उदयसे संयुक्त, अत्तएव विनश्वर है 1 संसारके प्राणी दुःखसे डरते हैं और सुख चाहते हैं, पर अविनश्वर सुखका कार्य नहीं करते । यथा-
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दुःखाद्विभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् । दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥ *
संसार में सुखका कारण सम्यग्दर्शन है, अपने स्वरूपको पहचानना है। जो आत्मानुभूति कर लेता है उसीको समता और शान्तिको प्राप्ति होती है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इन चारों आराधनाओंका सेवन करनेसे जन्म, जरा और मरण रोगका विनाश होता है। श्रद्धागुण जब तक स्वानुभूति से संयुक्त नहीं होता तबतक सम्यक्त्वरूप परिणमन नही होता । स्वानुभूतिके बिना जो श्रुतमात्र के आलम्बनसे श्रद्धा होती है, वह
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१. आत्मानुशासन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, ब्लोक ८३ । २. ही पद्य २ |
१२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा