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पट्टे तस्य प्रीणितप्राणिवर्ग शांतो दांतः शीलशाली सुधीमान् ।
जीयात्सूरिः श्रीसुमत्यादिकोतिः गच्छाधीशः कमुकान्तिकलावान् ।। सकलभूषणने वि० सं० १६२७ में उपदेशरत्नमालाको समाप्त किया था। इन्होंने अपने आपको सुमतिकीतिका गुरुभाई होना स्वीकार किया है। ब्रह्म कामराजने अपने 'जयकुमारपुराण में भी सुमतिकोतिको भट्टारक शुभचन्द्रका शिष्य लिखा है
तेभ्यः श्रीशुभचन्द्रः श्रीसुमतिकोतिसंयमी।
गणकीयाहया आसन् बलात्काराणश्वरः ।। वि० सं० १७२२ में भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति द्वारा लिखित 'प्रद्युम्नप्रबंध में भी सुमत्तिकीतिको शुभचन्द्रका शिष्य कहा गया है।
दूसरे सुमतिकीतिका उल्लेख भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्यके रूपमें आता है। इन ज्ञानभूषणने कर्मकाण्डको टीका सुमतिकोतिकी सहायतासे लिखी
तदन्वये दयांभोधि ज्ञानभूषो गणाकरः ।
टीका हि कर्मकांडस्य चक्रे सुमतिकोत्तियुक्॥ ये समतिकीर्ति नन्दिसंघ' बलात्कारगण एवं सरस्वत्तोगच्छके भवारक वीरचन्दके शिष्य थे। इनके पूर्व इस परम्परामें लक्ष्मीभूषण, मल्लिभूषण एवं विद्यानन्दि हो चुके हैं। सुमत्तिकी तिने प्राकृतपंचसंग्रहको टोकाको वि० सं० १६२० भाद्रपद शुक्ला दशमोके दिन ईडरके ऋषभदेव जिनालय लिखा है । इस टोकाका संशोधन ज्ञानभूषण भट्टारकने किया है ।
यहाँ जिन सुमतिकोतिका निरूपण किया जा रहा है, वे भट्टारक देवेन्द्रकौतिकी परम्परामें होनेवाले भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्य हैं । सम्भवतः ये सुमतिकीति किसी भट्टारक गद्दो पर आसीन नहीं हुए हैं । अपितु बिरक्त साधुके रूपमें विचरण करते रहे हैं । भट्टारक-विरुदावली में बताया गया है
"अनेकदेशनरनाथनरपत्तितुरगपतिगजपतियवनाधीशसभामध्यसंप्राप्तसन्मान श्रीनेमिनाथत्तीथंकरकल्याणिकपवित्र श्रीऊर्जयंतशयुंजय-तुंगीगिरि-चूलमिर्यादिसिद्धक्षेत्रयात्रापवित्राकृतचरणानां
................""सकसिद्धांतवेदिनिग्रंथाचार्य १. श्रीमद्विमभूपतेः परिमिते वर्षे शते षोडशे। विंशत्यग्रगते (१६२०) सिते मुभतरे
भाद्रे दशम्यां तिथों ॥ ईलावे वृषभालयं वृषकरे सुश्रायके धामिके। सूरिश्रीमुम
तीशी तिविहिता टीका सदा नंदतु ।। प्राकृतपंचसंग्रहकी टीकाका अन्तिम पध । ३७८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा