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मुणकीर्तिके पट्टशिष्य-यशःकोर्ति हुए तथा इनके पट्टशिष्य मलयकीर्ति हुए। यसःकीर्ति अपने समयके अत्यन्त प्रसिद्ध और यशस्वी व्यक्ति थे । स्थितिकाल ___ 'भविष्यदत्तचरित'के प्रतिलिपिकी पुष्पिकासे स्पष्ट है कि वि०सं० १४८६में डूंगरसिंहके राज्यकालमें भट्टारकयश कीर्ति यशस्वी हो चुके थे। भट्टारक यगःकीर्तिने जीर्णशीर्ण ग्रन्थोडावे
लागु अन्योंकी लिपियोंका भी कार्य कराया था। इन ग्रन्थोंमें दो रचनाएँ प्रधान हैं---१. सुकुमालचरित' ( अपभ्रश) और २. भविध्यदत्तचरित 1 इन दोनों ग्रन्थोंके लेखक पं० विवध श्रीधर थे। पं० थल कायस्थने इन दोनों ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियां की थीं। इन प्रतिलिपियोंके पुष्पिकाओं एवं ग्वालियरके एक मूर्ति लेखमे यश कीर्तिका समय वि०सं० १४८६-१५१० सिद्ध होता है ।
ग्रशःकीत्तिंने पाण्डवपुराणको रचना वि० सं० १४२.७ में की है तथा गोपाचल दूर्गकी श्रीआदिनाथ मतिका एक अभिलेख वि० सं०१४९७ का प्राप्त है, जिसमें गुणकीर्तिकं पट टपर यशःकीर्तिके आसीन होनेकी चर्चा है। इस मूर्तिका प्रतिष्टाकार्य पं० रधुने सम्पन्न किया था। वि० सं० १५१० के मूर्ति लेखोंमें मलयकीतिका उल्लंख मिलने लगता है तथा एकाध मूर्ति लेखमें यग कीर्शिका भी नाम हैं । इगसे यह निष्कर्ष निकलता है कि वि० सं० १५१० के लगभग यशः कीति अपना पटट विमलकीर्तिको दे चुके थे। वि० सं० १५०२ के एक मन्त्र लेख में भी मलय कीर्तिका निर्देश है। इस आधार पर श्री जोहरापुरकग्ने यशःकीत्तिका गभय १४८६-१४५७ वि० सं० माना है। पर गोपाचलके मूर्ति लेखोंमें इनका निर्देश वि० १५१० तक पाया जाता है। अतएव इनका समय वि०म० की पन्द्रहवीं गतीका अन्तिम भाग तथा सोलहवींका पूर्व भाग है । ___ यम.कोत्तिका व्यक्तित्व बहुमुखी है । ग्रन्थकर्ता, ग्रंथोद्धारकर्ता, ग्रन्थसंरक्षक होनेके मात्र नये साहित्यकारों के प्रेरणास्रोत भी ये रहे हैं। मूर्ति प्रतिष्टाओंमें भी इन्होंने योगदान दिया है। इस प्रकार जैन संस्कृतिके प्रचार और प्रसारको दष्टिसे यम:कीतिक कार्योका महत्त्व कम नहीं है।
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१. म० ३.४८६ व अश्विणिर्वाद १३ सोगदिने गोपापलदुर्गे राजा डूंगरसिंह देवविजय
राजप्रवत्ताने श्रीनाष्टाचे माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्रीभावसेन देवास्तपट्टे श्रीराहसकोति देवास्तत्पटे श्रीगुणकोति देवात्तच्छिष्येण श्री यश-कीर्तिदेवन |
४१० : ताथवर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा