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________________ लिये नाटकीय तत्त्वोंकी योजना भी की है। फलतः आन्तरिक द्वन्द्व सहजरूपमें उपस्थित हुए हैं। किसी भी काव्यका प्रबन्ध तभी प्राणवंत होता है, जब उसमें जीवनके समानविरोधी स्वरोंकी योजना की जाये । कविने आत्मनिष्ठ अनुभूतिको वस्तुपरक बिम्बों द्वारा पाठकों तक प्रेषित करनेका प्रयास किया है। शृङ्गार, वीर, करुण और शान्त रसोंका परिपाक सुन्दररूपमें हुआ है । कविने कुमार वराङ्गकी विचारधाराका अंकन करते हुए लिखा है वियोगवन्तो भवभोगयोगा वायुःस्थिरं नो नवयौवनं च । राज्यं महाक्लेशसहस्रसाध्य ततो न नित्ये भवि किंचिदस्ति ॥ १३४ लक्ष्मीरियं वारितरङ्गलोला, क्षणे क्षणे नाशमुपैति तायुः । तारुण्यमेतत्सरिदम्बुपूरोपमं नृणां कोऽत्र सुखाभिलाषः ।।१३।५ कविने इस काव्यमें सम्पूर्ण जीवनमूल्योंका उल्लेख किया है ! कवि आध्यात्मिक जीवन के साथ लोकजीवनका मो महत्त्व देता है। वह धर्मबुद्धि, गुरुविनय, मित्र-बन्धुस्नेह, दीन-अनाथकरुणाभाव, शत्रुओंके मध्य प्रतापप्रदर्शनको जीवनके लिए आवश्यक मानता है । जीवनका अन्तिम लक्ष्य भले ही मक्तिलाभ है, पर संसारके मध्य रहते हए कठोर श्रम द्वारा संयमित आचारध्यवहारको जीवनमें उतारना ही वास्तविक उपलब्धि है । कविने जीवनशोधनके उपकरणोंका विश्लेषण करते हुए लिखा है सम्यग्ज्ञानं सूचरणयुतं प्राप्तसम्यक्त्वमुच्चे: पात्रे दानं जिनपत्तिविभोः पूजन भावनं च। धर्मध्यानं तपसि च मति साधुसङ्ग वितन्वन श्रेयोमार्गप्रकटनपरः श्रीवराङ्गो रराज ॥ ३४२ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रपूर्वक पात्रदान देना. जिनेन्द्रकी पूजा-भक्ति करना, धर्मध्यान-शुभध्यान करना, तपश्चरण करना, साधु-सज्जन और सदाचारी व्यक्तियोंकी संगति करना एवं कल्याणकारी मार्गका अनुसरण करना जीवन लक्ष्य है। __कविने रात्रिभोजनत्याग, शोधित अन्न-जलका ग्रहण, मौनपूर्वक भोजन, नवनीतत्याग, कन्द-भक्षण-त्याग, पंचोदम्बरभक्षणफल-त्याग आदिको भी जीवन के लिए आवश्यक बताया है। यह काव्य धर्म, दर्शन, संस्कृति और लोकजीवनके सिद्धान्तोंसे सम्पृक्त है । प्रयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३६१
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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