________________
शिष्यको समझाने के लिए मुख्य तथा गौणरूपसे अन्तरंगतत्त्व और बाह्यतत्त्व इनके वर्णन करनेके लिए १०१ गाथाओंमें ज्ञानाधिकार कहेंगे। तदनन्तर ११३ गाथाओंमें दर्शनाधिकार और ९७ गाथाओंमें चारित्राधिकारका वर्णन किया जायगा । इस तरह समुदायसे ३११ सूत्रों द्वारा ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप तीन महाधिकार हैं । अथवा टीकाके अभिप्रायसे सम्यकज्ञान, ज्ञेय और चारित्राधिकार चूलिकासहित तीन अधिकार हैं। उत्थानिकामें बताया है-"अथ कश्चिदासन्नभव्यः शिवकूमारनामा स्वसंवित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुरखामृतविपरीतचतुर्गतिसंसारदुःखभयभीत: समुत्पन्नपरमभेदविज्ञानप्रकाशातिशयः, समस्तदुर्नयकान्तनिराकृतदुराग्रहः, परित्यक्तसमस्तशत्रुमित्रादिपक्षपातेनात्यन्तमध्यस्थो भत्वा धर्मार्थकामेभ्यः सारभूत्तामत्यन्तात्महितामविनश्वरां पञ्चपरमेष्टिप्रासादोत्पन्नां मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः श्रीवर्धमानस्वामितीर्थकरपरमदेवप्रमखान् भगवतः पञ्चपरमेष्ठिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाधयामीति प्रतिज्ञा करोति''
निकट भव्य शिवकुमारको सम्बोधित करनेके लिए कुन्दकुन्दाचार्यने यह ग्रन्थ रचा है । वे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य स्वसंवेदनसे उत्पन्न होनेवाले परमानन्दमय एक लक्षणके धारी सुखरूपी अमृतके विपरीत, चार मतिमय संसारकं दुःखोंसे भयभीत थे, जिनमें परम भेदज्ञानके द्वारा अनेकान्तके प्रकाशकका माहात्म्य उत्पन्न हो गया था, जिन्होंने समस्त दुर्मयों के एकान्तका हह दुर कर दिया था, तथा जिन्होंने समस्त शत्रु-मित्र आदिका पक्षपात छोड़कर और अत्यन्त मध्यस्.. होकर धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थों की अपेक्षा अत्यन्त सार और आत्महितकारो एवं अविनापी तथा पञ्चपरमेष्ठीके प्रसादसे उत्पन्न होनेवाले मोक्षलक्ष्मीरूपी पुरुषार्थको अंगीकार किया था। वे श्रीवर्धमानस्वामी तीर्थकर परमदेवको आदि लेकर भगवान् पञ्चपरमेष्ठियोंको द्रव्य और भाव नमस्कार करते हैं।
इम स्थानिकामे यह स्पष्ट है कि क्रिमी जिन्नकूमारको सम्बोधित करने के लिए कुन्दकुन्दाचार्यने यह ग्रन्थ लिखा है। टीकाकार जयसेनने प्रवचनसारके तीनों अधिकारांकी व्याख्या की है। इसी प्रकार समयसार और पञ्चास्तिकायकी तात्पर्यवनि भी लिखी है। इनकी टीवाशैलीकी प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार हैं
१ समस्त पदोंका व्याख्यान । २. आशयका स्पष्टीकरण । ३. व्यायाम निश्चयनयके साथ व्यवहारनयका भी अवलम्बन ।
१. प्रवचनसार, उत्थानिका टीका, शान्ति वीर दिगम्बर जैन प्रकाशन, पृ. ५ ।
१४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्गरम्परा