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६. उपासक संस्कार- इस अधिकारमें १२ पद्य हैं । सर्वप्रथम व्रत और दानके प्रथम प्रवर्तक आदिजिनेन्द्र और राजा श्रेयान्सके द्वारा कर्मकी स्थिति दिखलाकर उसका स्वरूप बतलाया है । धर्मके मुनिधर्म और श्रावकधर्म भेद बतलाकर श्रावकाचारका निरूपण करते हुए गृहस्थके देवपुजा, निर्ग्रन्थ गुरुकी उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन पट् आवश्यकोंका कथन किया है । सात व्यसनके त्यागपर जोर देते हुए सामायिक व्रतका स्वरूप प्रतिपादित किया है ।
७. बेशव्रतोद्योतन में २७ पद्य हैं। यहाँ सम्यदुष्टिको प्रशंस्य बतलाते हुए सम्यग्दर्शनके साथ मनुष्य भवके प्राप्त हो जानेपर तपको ग्रहण करने की प्रेरणा की है। यदि मोह या अशक्तिके कारण दिगम्बरी दीक्षा लेकर तपाचरण कर सम्भव न हो, तो सम्यग्दर्शनके साथ पद्यावश्यक, अष्टमूलगुण और द्वादशगुणोंको धारण करना चाहिए। रात्रिभोजनत्याग और छने हुए जलका व्यवहार गृहस्थको करना चाहिए | श्रावक आरम्भजन्य पापक्रियाएँ करता है, अतएव उसे आहार, औषध अभय आदि दानकार्यों द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करना चाहिए 1
श्रावकके बचावकोंम देवदर्शन और देवपूजन प्रथम कर्त्तव्य है । देवदर्शनादिके बिना, गृहस्थाश्रमको पत्थर की नाव समझना चाहिए । इसके लिए चैत्यालय निर्माण अतिशय पुण्यवर्धक है । अतः चैत्यालयके आधारसे ही मुनि और श्रावक दोनोंका धर्म अवस्थित रहता है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थीमें सर्वश्रेष्ठ मोक्ष ही है । यदि धर्म पुरुषार्थ मोझके साधनरूपमें अनुष्ठित होता है तो वह उपादेय है। इसके विपरीप भोगादिककी अभिलाषासे किया गया धर्मपुरुषार्थ पापरूप है । अतः अणुव्रत या महाव्रत दोनोंके पालन करनेका उद्देश्य मोक्षप्राप्ति है ।
८ सिद्धस्तुति - २९ पद्योंमें कर्मक्षय करने वाले सिद्धोंकी स्तुति की गयी है । ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मोके नाश करनेसे कौन-कौन गुण उत्पन्न होते हैं, इसका भी कथन आया है ।
९. आलोचना - इस अधिकारमें ३३ पद्य हैं। जिनेन्द्रके गुणोंका वर्णन करते हुए यह बतलाया है कि मन, वचन और काय तथा कृत कारित और अनुमोदन, इनको परस्पर गुणित करनेपर जो नौ स्थान प्राप्त होते हैं, उनके द्वारा प्राणीके पाप उत्पन्न होता है। इसके लिए प्रभुके समक्ष आत्मनिन्दा करना आलोचना है । अज्ञानता और प्रमादवश होकर जो पाप उत्पन्न हुआ है, उसे निष्कपट भाव से जिनेन्द्र और गुरुके समक्ष प्रकट करना आलोचना है । आलोचना करनेसे आत्मशुद्धि होती है और लगे हुए पापोंसे छुटकारा प्राप्त होता
१३४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
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