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३. अनित्यपञ्चाशत्-में ५५ पद्य हैं । शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, वैभव आदिको स्वाभाविक अस्थिरता दिखलाकर उनके संयोग और वियोगमें हर्ष और विषादके परित्यागके लिए प्रेरणा की गयी है। आयुकर्मका अन्त होनेपर प्राणान्त होना अनिवार्य है, कोई किसीकी आयुको एक क्षण भी नहीं बढ़ा सकता है, अतः वस्तु स्थितिका विचार कर हर्ष-विषादसे पथक रहनेकी चेष्टा करनी चाहिए । कुटुम्बी प्राणी उसी प्रकार सायमें रहते हैं, जिस प्रकार रात्रि होनेपर पक्षी इधर-उधर• से आकर एक ही वृक्ष पर निवास करते हैं, प्रभात होने पर पुनः अनेक दिशाओंमें चले जाते हैं। इसी प्रकार प्राणी अनेक योनियोंसे आकर विभिन्न कुलोंमें जन्म ग्रहण करते हैं और पुनः आयुके समाप्त होनेपर अन्य कुलोंमें चले जाते हैं।
४. एकत्यसप्रति—इसमें ८० पद्य हैं। चिदानन्दस्वरूप परमात्माको नमस्कार करनेके अनन्तर चित्स्वरूप यद्यपि प्रत्येक प्राणिके भीतर अवस्थित है, पर अज्ञानताके कारण अधिकतर प्राणी उसे पहचानते नहीं हैं, अतएव उसे बाह्य पदार्थोंमें दहते हैं। जिस प्रकार अग्नि काष्ठमें अव्यक्तरूपसे व्याप्त है, उसी प्रकार चैतन्य-आत्मा भी अपने भीतर व्याप्त है 1 राग-द्वेषके अनुसार जो किसी भी पदार्थसे सम्बन्ध होता है, वह बन्धका कारण है तथा समस्त बाह्य पदार्थों में भिन्न एकमात्र आत्मस्वरूपमं जो अवस्थान होता है, वह मुक्तिका कारण है । बन्ध-मोक्ष, राग-द्वीप, कर्म-आत्मा और शुभ-अशुभ इत्यादि प्रकारसे जो द्वंत बुद्धि होती है, उससे संसारमें परिभ्रमण होता है और इसके विपरीत अद्वैत-- एकत्वबुद्धिसे जीव मुक्तिके सन्मुख होता है। शुद्ध निश्चय नयके अनुसार एक अखण्डचैतन्य आत्माकी ही प्रतीति होती है, इसमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र तथा क्रिया-कारक आदिका कुछ भी भेद प्रतिभासित नहीं होता । 'जो शुद्ध
चैतन्य है, वही निश्चयसे मैं हूँ' की प्रतीति होती है । ___ परमात्मतत्त्वकी उपासनाका एकमात्र उपाय साम्य है। स्वास्थ्य, समाधि, योग, वित्तनिरोध और शुद्धोपयोग ये सभी साम्यके नामान्तर हैं । शुद्ध चतन्यके अतिरिक्त आकृति, अक्षर, वर्ण एवं अन्य किसी भी प्रकारका विकल्प नहीं करना ही साम्य है। कर्म और रागादिकको हेय समझकर छोड़ देना और उपयोगस्वरूप परंज्योतिको उपादेय समझकर ग्रहण करना साम्यस्थिति है।
५. यतिभावनाष्टक-इस प्रकरणमें ९ पद्य हैं। इन पद्यों में उन मुनियोंकी स्तुति की गयी है, जो पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके विषयभोगोसे विरक्त होते हुए नानाप्रकारके तपश्चरण करते हैं तथा सभी प्रकारके उपसगाको सहन करते हैं।
प्रबुद्धाचार्ग एवं परम्परापोषकाचार्य : १३३