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कषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेनेकदेशरागादिरहितस्वाभाविकसुखानु भूतिलक्षणेषु बहिविषयेषु पुनरेकदेशहिंसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु" दमणबयसामाझ्यपोराहसचित्तराइभत्तया......स एव सदृष्टि लिरेन्वादिदृशकोपादितृतीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेन रामाहापाधिरहितस्वशुद्धात्मसंवित्तिसामुान्नसुखामृतानुभवलक्षणेषु बहिर्विषयेषु पुन: सामस्त्येन हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रनिवृत्तिलक्षणेषु च पञ्चमहाव्रतेषु वर्तते स एव जलरेखादिशदृशसंज्वलनकषायमन्दोदये.. ."सत्यपूर्वपरमालादैकसुखानुभूतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवर्ती भवति ।"१ - यही अभिप्राय पण्डित आशाधरजीके निम्नलिखित पद्यमें अंकित उपलब्ध होता है
भूरेखादिसदक्कषायवशगो यो विश्वदश्वाज्ञया हेयं वैषयिक सुखं निजमुपादेयं विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिंदादिमान
शर्माक्षं भजते रुजत्यपि पर नोत्तप्यते सोप्यघः ॥ उक्त गद्य-पद्यमें शब्द और अर्थ सादृश्य है । अतः यह मानना पड़ता है कि किसी एकने दूसरेका अनुसरण किया है। आशाधरजीका समय वि० की १३वीं शताब्दी है। आशाधरजीने बहदद्रव्यसंग्रहको टीकाके अनेक वाक्य ग्रहण किये हैं- अतः ब्रह्मदेव आशाघरके पूर्ववर्ती हैं। इनका समय जयसेनसे पूर्व है।
पं० अजितकुमार शास्त्रीके सम्पादकत्वमें प्रकाशित बृहद्रव्यसंग्रहकी भूमिकामें लिखा है--"जयसलमेरके श्वेताम्बरीय भण्डारमें वि० सं० १४८५ श्रावण सुदी तेरस शनिवारकी लिखी हुई टीकावाली द्रव्यसंग्रहकी एक प्रति है । जो माण्डवगढ़ वर्तमान माण्डूमें काष्ठासंघ, माथुरसंघके भट्टारक गुणकोतिके शिष्य भट्टारक यश कीति, हरिभूषणदेव और ज्ञानचन्द्रको आम्नायमें अग्रवालवंशी, मगंगोत्री थावक साह धीनुके पुत्र हींगाकी धर्मपत्नीने अपने ज्ञानाबरणकमके क्षयार्थ लिम्बबायी थी। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवका समय इस पाण्डुलिपिकी तिथिसे पूर्ववर्ती है। अतः निष्कर्षरूपमें ब्रह्मदेवका समय ई० सन् को १२वीं शती है। रचनाएँ
१. बृहद्रव्यसंग्रहकी टीका १. बृहद्रव्यसंग्रह, प्रथम संस्करण, गाथा १३, पृ० ३३-३५ । २. सागारधर्मामृत, १।१३ ।
३१२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा