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नाचतं नमदिजो सकर नद बच्छल
लहदि निच्चदि गदि सोदह णिम्मलं ॥ मागधी
अशुल शुल विलशन लनाय शेविव पदे,
नमिल जय जंतु तुदिन्नशिब दुल पदे । चलन पुल निलद शिशालि शलशी लुदे,
देहि मह शा मिव शालि शाशद पदे ॥ स्तोत्र बीजाक्षरगर्भित है और मन्त्रशास्त्रको दृष्टिसे महत्वपूर्ण है ।
हमारा अनुमान है कि यह स्तोत्र इन्द्रनन्दि विचित नहीं है, किसीने पीछेसे इसे जोड़ दिया है। मूल ग्रन्थ दशम परिच्छेदके अनन्तर समाप्त हो जाता है । अतः बादमें जितने पूजा-पाठ आये हैं, वे सभी अन्य किसीके द्वारा रचित हैं।
इस मन्त्रग्रन्थमें भारतकी ८-९वीं शतीकी मान्त्रिक परम्पराका संकलन किया गया है । आचार्यने जहां-तहाँ पंचपरमेष्ठी और उनके बीजाक्षरोंका निर्देश कर सामान्य मन्त्रपरम्पराको जेनत्वका रूप दिया है । जेनदर्शन और जैन तत्त्वज्ञानके साथ इसका कोई भी मेल नहीं है पर लोकविधिके अन्तर्गत इसकी उपयोगिता है । मध्यकालमें फलाकांक्षी व्यक्ति श्रद्धानसे विचलित हो रहे थे, अत: उस युगमें जैन-मन्त्रोंका विधान कर जनसाधारणको इस लोकैषणामें स्थित किया है।
जिनचन्द्राचार्य सिद्धान्तसार ग्रन्यके रचयिता जिनचन्द्राचार्य हैं । इस ग्रन्थकी उपान्त्य गाथामें बताया है--
पवयणपमाणलक्खणछंदालंकाररहियहियाएण।
जिणइंदेण पउत्तं इणमागमभत्तिजुत्तेण' ॥ इस गाथामें "जिणइदेण' पदसे संस्कृत रूपान्तर जिनचन्द्र ही सिद्ध होता है, जिनेन्द्र नहीं। अतएव भाष्यकारने 'जिनचन्द्रनाम्ना सिद्धान्तग्रन्थ वेदिना' जो अर्थ किया है वह बिल्कुल यथार्थ है । श्री नाथूराम प्रेमीने सिद्धान्तसारादिसंग्रहको प्रस्तावनामें सम्भावना की है कि जिनचन्द्र भास्करनन्दिके गुरु हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके ५५वें शिलालेखमें आया है । सस्वार्थको सुखबोधिका, टीकामें निम्नलिखित प्रशस्ति प्राप्त होती है, जिसमें भास्करनन्दिके गुरु जिनचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रोके पारंगत विद्वान बतलाये गये हैं--- १. सिद्धान्तसारादिसंग्रह, माणिकचन्न दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, पद्य ७८, पृ० ५२ । १८४ : तीपंकर महावीर और उनको श्राचार्यपरभरा