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है ! ये पुन्नाटसंघके आचार्य हैं । इनके गुरुका नाम कीर्तिषेण था । हरिवंश पुराण के ६६ वें सर्गमें भगवान महावीरसे लेकर लोहाचार्य पर्यन्त आचार्योंकी परम्परा अंकित है । वीर निर्वाणके ६८३ वर्षके अनन्तर गुरु कीर्तिषेणकी अविछिन्न परम्परा इस पाक की नयी है। अमिनमेनको पुन्नादगणका अग्रणी और शतवर्षजीवी बतलाया है । पुन्नाट कर्नाटकका प्राचीन नाम है । हरिषेण कथाकोष में आया है कि भद्रबाहु स्वामीके आदेशानुसार उनका संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथके पुन्नाट देशमें गया । अतः इस देशके मुनिसंघका नाम पुन्नाठसंघ पड़ गया। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री नाथूराम प्रेमीका अनुमान है कि अमितसेन पुन्नाटसंघको छोड़कर सबसे पहले उत्तरकी ओर बढ़े होंगे और पूर्ववर्ती जयसेन गुरु तक यह संघ पुन्नाटमें ही विचरण करता रहा होगा । अतएव यह माना जा सकता है कि जिनसेनसे ५०-६० वर्ष पूर्व ही यह संघ उत्तरभारत में प्रविष्ट हुआ होगा ।
हरिकी रचना और रचना स्थानका निर्देश करते हुए ग्रन्थकर्त्ताने लिखा है कि शक संवत् ७०५ ( ई० सन् ७८३ ) में जब कि उत्तर दिशाकी इन्द्राव, दक्षिण दिणाकी कृष्णका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्वको अवन्तिनृपत्ति वत्सराज और पश्चिमकी - सौरोंके अधिमण्डल सौराष्ट्रकी वीरजयवराह रक्षा करता था, तब लक्ष्मीसे समृद्ध वर्द्धमानपुरके पाश्र्व जिनालय में, जो नन्तराज वसतिके नामसे प्रसिद्ध था, इस ग्रन्थका प्रणयन आरम्भ हुआ और पीछे दोस्तटिका के शान्ति जिनालय में पूर्ण किया गया ।
इसी वर्धमानपुर में हरिषेणने भी अपने कथाकोषकी रचना की है। इस नगरकी अवस्थितिके सम्बन्ध में डॉ० ए० एन० उपाध्येका मत है कि यह वर्धमान
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जैन साहित्य और इतिहास, द्वित्तीय संस्करण ५० ११५ ।
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२. शान्तेषु सप्तसु दिशं पवोत्तरेषूत्तरां
पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्ण नृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् ।
पूर्वां श्रीमदवन्तिभूभूति नृपे वत्सादिराजेश्वरां
सूर्याणामधिमण्डल जययुतं श्रीरे बराहेऽवति ॥ कल्याणैः परिवर्धमानविपुल श्रीवर्धमाने पुरं श्रीपादवलयनम्न राज बसतो
पर्याशेष: पुरा 1
पश्चाद्वास्त टिकाप्रजाप्रजनितप्राज्याचं नाव ने
शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशी हरीणामयम् ॥
हरिवंशपुराण, सर्ग ६, ५२, ५३ ।
२ : वीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा