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गणचन्द्र, जिनचन्द्र, वर्षमान, धीवर, वासुपूज्म, विद्यादि स्वामि, कट कोपाध्याय श्रुतकीर्ति, वादिविश्वासघातक मलेयालपाण्डपदेव, नेमिचन्द्र मध्याह्नकल्पवृक्ष वासुपूज्य' । इस अभिलेखसे स्पष्ट है कि माधव द्रको गुरुपरम्पगमें मासोपवासि रविचन्द्र हुए हैं। इन रविचंद्रका समय ई. सन्को १३ वीं शती सिद्ध होता है। 'आराधनासारसमुच्चय'के रचयिता रविचन्द्र उपर्युक्त रविचन्द्र ही हैं या इनसे भिन्न हैं, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है। ग्रन्थान्तमें आचार्यने अपना परिचय एक ही पद्यमें दिया है
श्रीरविचन्द्रमुनीन्द्रः पनसोगेग्रामवासिभिग्रंन्यः ।
रचितोऽयमखिलशास्त्रप्रवीणविद्वन्मनोहारी ।।४।। इस परिचयसे इतना तो स्पष्ट है कि आचार्य दक्षिणभारतके निवासी थे और इन्होंने जैन आगमका पाण्डित्य प्राप्त किया था।
आराधनासारमें रविचन्द्रने पूर्वाचार्योंके अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इन उद्धरणोंसे इनके समयके सम्बन्धमें अनुमान लगाया जा सकला है। इन्होंने रामसेन द्वारा विरचित तत्वानुशासनका निम्नलिखित पद्य आराधनासारसमुच्चयमें 'उक्तञ्च' कहकर उद्धृत किया है
तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु ।
शुभाशुभमलाभावाद्विशुद्धं शुक्लमभ्यदु: ॥२०४।। अर्थात् अपूर्वकरण आदि स्थानोंमें जो उदासी-अनासक्तिमय तत्त्वज्ञान होता है, वह शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके मलके नाश होने के कारण शक्लध्यान कहा गया है। श्री पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारने रामसेनका स्थितिकाल दशम शतीका मध्य माना है। अतएव रविचन्द्रका समय रामसेनके बाद आता है।
'आराधनासारसमुच्चय'का उल्लेख शुभचन्द्रने स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी संस्कृतव्याख्यामें किया है। शुभचन्द्रने अपनी यह व्याख्या ई० सन् १५५६में पूर्ण की है। अतएव यह निश्चित है कि रविचन्द्रकी ख्याति उस समय तक व्याप्त हो चुकी थी। अतएव उनका समय ई० सन् १५५६ के पूर्व अवश्य है । माघचन्द्रको गुरुपरम्पराके अवलोकनसे ऐसा प्रतीत होता है कि आराधनासारसमुच्चयके रचयिता हू,लेबीडके कन्नड़ लेख में वर्णित रविचन्द्र ही हैं । यह अभिलेख ई० सन् १२०५ का है। इसी प्रकार १३ वीं शतोक 'केलगेरे के अभिलेखमें भी मासो१. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ४ । २. तत्वानुशासन, पय ३४२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३१७