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कुछ शताब्दियों के बाद उनमें नूतनता नामको वस्तु कम ही शेष रह जाती है । 'तीर्थंकर महावीर की जो आरातोय परम्परा आरम्भ हुई, शनैः-शनैः उस परम्परा में भी मौलिकताका ह्रास होने लगा | प्राचीन आचार्योंने जिन विषयों पर ग्रन्थ-रचनाएं की थीं, उन्हीं विषयोंपर भाषा और शैली बदलकर रचनाएँ लिखी जाने लगों | अध्यात्म, सिद्धान्त दर्शन, काव्य, आख्यान, चरित आदि विविध प्रकारके वाङ् मयका निर्माण तो अवश्य हुआ, पर मौलिकताका अभाव होने के कारण एक प्रकारसे परम्पराका निर्वाह ही होता रहा ।
परम्परा के निर्वाहिका एक कारण राजनीतिक अस्थिरता भी है । १३वीं शताब्दी से ह्रासका प्रवेश हुआ और मुस्लिम युगने साहित्य एवं संस्कृतिके विकास में बहुत अधिक योगदान नहीं दिया है। हिन्दू राजाओंकी राजशक्ति क्षीण हो रही थी, फक्तः देश में स्थिरता और शान्तिका अभाव था | इस वातावरण के प्रभावसे वाङ्मय भी अछूता न रहा और जैनाचार्यों में ही नहीं, समस्त भारतीय लेखकों में मौलिक प्रतिभाका अभाव दिखलायी पड़ने लगा |
सारस्वताचार्यों और प्रबुद्धाचार्योंने
किया श्री. उन्हीं नामोंको लेकर सरल और चमत्कारशून्य शैली में रचनाओंका पुनरावर्तन प्रारम्भ हुआ । यद्यपि दो-चार प्रतिभाशाली आचार्य इस पुनरावृत्तिकाल में भी उत्पन्न हुए, पर बहुसंख्यक आचार्योंने भावों और सन्दर्भोंका पिष्टपेषण ही किया ।
परम्परा पोषणका नेतृत्व भट्टारकों के हाथमें आया, जो कि मठाधीशके रूप में अपनी विद्याबुद्धिका चमत्कार जनसाधारणके समक्ष प्रस्तुत किया करते थे । वाङमय-सृजन की मौलिक प्रतिभा और अध्ययनका गाम्भीर्यं प्रायः इन्हें प्राप्त नहीं था । श्रनी-मानी शिष्योंसे वेष्टित रहकर तन्त्र-मन्त्र या जादू-टोनेकी चर्चाएँ कर जन-मानस को ये अपनी ओर आकृष्ट करते थे। धर्मप्रचार करना, पूजा प्रतिष्ठाओं द्वारा सर्वसाधारणको धर्मके प्रति श्रद्धालु बनाये रखना एवं वाङमयका संरक्षण सम्बद्धन करना प्रायः भट्टारकों का लक्ष्य हुआ करता था । यही कारण है कि भट्टारकों द्वारा मद्दियोंपर समृद्ध ग्रन्थागार स्थापित किये गये । नवीन रचनाओं के साथ आर्ष और मान्य आचार्यों एवं साहित्यकारों द्वारा रचित विभिन्न प्रकारके वाङ्मयकी प्रतिलिपियाँ भी इन्होंके तत्त्वावधान में प्रस्तुत की गयीं ।
इसमें सन्देह नहीं कि इन भट्टारकोंने परम्पराके संरक्षण में अपना पूरा योगदान किया है | पर युगकी मांग के अनुसार उत्तम कोटिके वाङमयका प्रणयन नहीं किया गया । धर्मप्रचारार्थं कथाकाव्य -- चरितकाव्य लिखे हैं और
२९६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा