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अधिकांश भटारकोंने अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है, पर इन रचनाओंसे परम्पराका संरक्षण ही हुआ है, विकास नहीं। धर्म और संस्कृतिके विकासका उत्तरदायित्व भट्टारकोंने सम्हाला । आरम्भमें यह वर्ग निश्चय ही निस्पही, ज्ञानी, त्यागी एवं जितेन्द्रिय था । स्वयं विद्वान होनेके साथ मनीषी विद्वानोंका संपोषण भी भट्टारकोंकी गद्दियों द्वारा होता रहा ।
परम्परापोषणके इस युगमें रखे गये ग्रन्थोंकी संस्था तहलो हैं । कर इनका गुणात्मक मूल्य अल्प है । अतः यह युग ग्रन्थ-परिमाणकी दृष्टिसे भले ही महस्वपूर्ण हो, पर मूल्योंको दृष्टिसे उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।।
इस परम्पराकी एक विशेषता यह है कि लोक-जीवनसे सम्बन्ध रखनेवाली विविधविषयक रचनाएं सम्पन्न हुई हैं। परम्परापोषक आचार्यों द्वारा निर्मित वाङ्मयको निम्नलिखित वगों में विभक्त किया जा सकता है
१. न्याय-दर्शनविषयक वाङ्मय २. अध्यात्म एवं सिद्धान्त सम्बन्धी वाङ्मय ३. चरित्र या आचारमुलक धार्मिक वाङमय ४. पौराणिकचरितग्रन्थ ५. लघुप्रबन्धग्रन्थ ६. दूतकाव्य ७. प्रबन्धात्मक प्रशस्तिमूलक ग्रन्थ ८. ऐतिहासिक ग्रन्थ ९. सन्धानकाव्य १०. सुक्तिकाव्य ११. स्तोत्र, पूजा और भक्ति विषयक साहित्य १२. संहिताविषयक साहित्य १३. मन्त्र-तन्त्र एवं चमत्कार विषयक साहित्य १४. प्रत्तमाहात्म्यसम्बन्धी साहित्य १५. उद्यापन एवं क्रियाकाण्ड विषयक साहित्य १६. ज्योतिष-आयुर्वेदविषयक साहित्य
परम्परापोषक आचार्योने वैदिक और बौद्ध तन्त्र-मन्त्रवादका अध्ययनकर कतिपय रचनाएं उन्हीं ग्रन्थोंके आधारपर लिखी हैं, जो जैनदर्शन और आगमको दृष्टिसे अनुकूल सिद्ध नहीं होती । शासन-देवोंको महत्त्व देकर, उनके आरामना विषयक ग्रन्थ लिखे हैं। अध्यात्म और कर्मसिद्धान्तके स्थानपर चमत्कारोंका प्रणयन विशेषरूपमें हुआ है । यह सत्य है कि भट्टारकोंने अपने युगकी आव
प्रवृद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २९७