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किया, महाराष्ट्रमें उन्हें बहुत यश मिला, सौराष्ट्रके धनी धावकोंने उनके लिए महामहोत्सव किया, सयदेश (ईडरके आस-पासका प्रान्त) के निवासियोंने उनके वचनोंको अतिशय प्रमाण या, मेदपार मेशात) मनामी लोगों को जन्होंने प्रतिबोधित किया, मालवेके भव्यजनोंके हृदयकमलको विकसित किया, मेवातमें उनके अध्यात्मरहस्यपूर्ण व्याख्यानसे विविध विद्वान श्रावक प्रसन्न हुए, कुरुजाङ्गलके लोगोंका अज्ञानरोग दूर किया, तूरवके षड्दर्शन और तर्कके जाननेवालोंपर विजय प्राप्त किया, वैराट (जयपुरके आस-पास) के लोगोंको उभयमार्ग (सागार-अनगार) दिखलाये, नमियाळ (निमाड़) में जिनधर्म की प्रभावना की, टगराट हडी-बटी नागट चार्ल (?) आदि जनपदों में प्रतिबोधके निमित्त विहार किया, भैरव राजाने उनकी भक्ति की, इन्द्र राजाने चरण पूजे, मजाधिराज देवराजने चरणोंकी आराधना की, जिनधर्मके आराधक मुदिलिपार, रामनाथ राय, घोम्मरसराय, कलपराय, पाण्डुराय आदि राजाओंने पूजा की और उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा को । व्याकरण-छन्द-अलंकार-साहित्य-तर्क-आगम-अध्यात्म आदि शास्त्ररूपी कमलोंपर विहार करने के लिए वे राजहंस थे और शुद्ध ध्यानामृतपानकी उन्हें लालसा' थी"।
नन्दिसंघकी पट्टावलीमें जो यह प्रशस्ति दी गयी है वह आंतशयोक्तिपूर्ण मालूम पड़ती है, पर इसमें सन्देह नहीं कि भट्टारक ज्ञानभूषण मेधावी और प्रभावशाली थे।
इनके व्यक्तित्वके सम्बन्धमें शभचन्द्र-पट्टालिसे पूरा प्रकाश प्राप्त होता है। इस पट्टावलिके नवम अनुच्छेदमें बताया है कि इन्होंने अनेक जनपदोंमें विहार कर प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। लिखा है___"इनके (भुवनकोतिके) पट्टरूपी उदयाचलके लिए सूर्य के समान, गुर्जरदेशमें सर्वप्रथम सागारधर्मके प्रचारक, अहीर-आभीर देश में स्वीकृत एकादश प्रतिमासे पवित्र शरीरवाले, वाग्वर देशमें अंगीकृत दुर्द्धर महावतके भारको धारण करनेवाले, कर्णाटक देशमें ऊंचे-ऊंचे चैत्यालयोंके दर्शनसे महापुण्यको उपार्जित करनेवाले, तौलव देशके महावादीश्वर विद्वज्जनों और चक्रवत्तियोंमें प्रतिमा प्राप्त करनेवाले, तैलंग देशके सज्जनोंसे पूजित चरणकमलवाले, द्रविड देशके सुविज्ञोस स्तुति किये जानेवाले, महाराष्ट्र दशमें उज्ज्वल यशका विस्तार करनवाले, सौराष्ट्र देशके उत्तम उपासकोंसे महोत्सव मनाये जानेवाल. सम्यग्दर्शनसे युक्त रायदेशके निवासी प्राणिसमूहसे प्रमाणीकृत वाक्यवाले, मेदपाट १. नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, सन् १९४२, पृ.
५२९-३०।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : ३४९