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प्रणमवि जिनवर पाउ, तु गड त्रिभवन नुए । समरवि सरसति देव तु सेवा सुरनर करिए || गाइसु आदि जिणंद आणद अति उपजिए । कौशल देश मझार तु सुसार गुण आगलुए ॥ नाभि नरिद सुरिंद जिसु सुरपुर बराए । मुरा देवी नाम अरधंग सुरंगि रंभा जिसी ए ।।
इस प्रकार सोमकीर्तिने अहिंसा, श्रावकाचार अनेकान्त आदि विषयों का प्रतिपादन किया है |
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आचार्य ज्ञानभूषण
ज्ञानभूषण नामके चार आचार्योंका उल्लेख प्राप्त होता है । प्रथम ज्ञानभूषण भट्टारक कीर्तिकी परम्परामें भट्टारक भुवनकीतिके शिष्य हुए हैं । द्वितीय ज्ञानभूषण सूरत शाखा के भट्टारक देवेन्द्रकी र्तिकी परम्परा में भट्टारक वीरचन्द्र के शिष्य के रूपमें हुए हैं। इनके भट्टारक होने का समय सं० १६००१६१६ है । तृतीय ज्ञानभूषणका सम्बन्ध अटेर - शाखाके साथ रहा है और इनक समय १७ वीं शताब्दी माना जाता है। चौथे ज्ञानभूषण नागौरके भट्टारक रत्नकोर्तिके शिष्य थे। इनका समय १८ वीं शताब्दीका अन्तिम चरण है ।
विवेचनीय ज्ञानभूषण प्रारम्भ में भट्टारक विमलेन्द्रकोति के शिष्य थे । किन्तु उत्तरकालमें इन्होंने भुवनकीर्तिको अपना गुरु स्वीकार किया है। ज्ञानभूषण एवं ज्ञानकीति ये दोनों ही सगे भाई एवं गुरुभाई थे । ये गोलालारे जातिके श्रावक थे । वि० सं० १५३५ में सागवाड़ा एवं नोगाममें एक साथ एक ही दिन आयोजित होने के कारण दो भट्टारक परम्पराएं स्थापित हुई । सागवाड़ा में होनेवाली प्रतिष्ठा के संचालक भट्टारक ज्ञानभूषण थे और नोगामके प्रतिष्ठा महोत्सव के संचालक ज्ञानकीर्ति थे । यहींसे ज्ञानभूषण बड़साजनोंके गुरु और ज्ञानकीर्ति लोहड़साजनों के गुरु कहलाने लगे ।
नन्दिको पट्टावलिसे ज्ञात होता है कि ज्ञानभूषण गुजरात के रहनेवाले थे । गुजरात में इन्होंने सागारधर्म धारण किया, अहोर (आभीर) देशमें ११ प्रतिमाएँ धारण कीं और वागवट या बागड़देशमें दुर्धर महाव्रत ग्रहण किये । तौल देश के यतियोंमें इनकी बड़ी प्रतिष्ठा हुई । तैलंगदेशके उत्तम - उत्तम पुरुषोंने इनके चरणों की वन्दना को । द्रविड़ देशके विद्वानोंने उनका स्तवन
१. राजस्थान के जैन सन्स, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, १० ४९
३४८ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा