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सुप्रतिकार इन आठ कुलोंके हाथियोंको ही ग्रहण करना इस वलके लिये आवश्यक है । गजोंके चुनावके समय जाति, कुल, वन और प्रचार इन चारों बातोंके साथ शरीर, बल, शूरता और शिक्षा पर भी ध्यान रखना आवश्यक है । अशिक्षित गजवल राजाके लिये धन और जनका नाशक बतलाया गया है ।
अबकी भी सेनिक उष्टि महत्वपूर्ण मानी गयी है। इसे जङ्गम सैन्य बल बताया है। इस सेना द्वारा दूरवर्ती शत्रु भी वशमें हो जाता है | शत्रुकी बढ़ी चढ़ी शक्तिका दमन, युद्ध क्षेत्रमें नाना प्रकारका रण-कौशल एव समस्त मनोरथसिद्धि इस बल द्वारा होती है । अश्वबलके निर्वाचनमें भी अश्वोंके उत्पत्तिस्थान, उनके गुणावगुण, शारीरिक शक्ति, शौर्य, चपलता आदि बातोंपर ध्यान देना चाहिये । रथबलका निरूपण करते हुए उसका कार्य, अजेय शक्ति आदि बातोंपर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। इस बलके निर्वाचनमें धनुर्विद्या ज्ञाता योद्धाओंकी उपयुक्तताका विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। पदातिबलमें पैदल सेनाका निरूपण किया है । पैदलसेनाको अस्त्र-शस्त्र में पारंगत होने के साथ-साथ शूर-वीर, रणानुरागी, साहसी, उत्साही, निर्भय, सदाचारी, अव्यसनी, दयालु होना अनिवार्य बतलाया है। जब तक सैनिकमें उपर्युक्त गुण न होंगे, वह प्रजाके कष्ट निवारण में समर्थ नहीं हो सकता है । सेवाभावी तथा कर्त्तव्यपरायणता होना प्रत्येक प्रकारकी सेनाके लिये आवश्यक है । सेनापतिकी योग्यता और गुणोंका कथन करते हुए सोमदेवसूरिने कहा है कि कुलीन आचार-व्यवहारसम्पन्न, पण्डित, प्रेमिल क्रियावान, पवित्र, पराक्रमशाली, प्रभावशाली, बहुकुटुम्बी, नीति-विद्यानिपुण, सभी अस्त्र-शस्त्र, सवारी, लिपि, भाषाओंका पूर्ण जानकार, सभीका विश्वास और श्रद्धाभाजन, सुन्दर, कष्टसहिष्णु, साहसी, युद्धविद्यानिपुण तथा दया- दाक्षिण्यादि नाना गुणोंसे विभूषित सेनापति होता है । सेनापतिका निर्वाचन मन्त्रियोंको सहायता से राजा करता है । सोम
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१. जातिः कुलं वनं प्रचारश्च न हस्तिनां प्रधानं किन्तु शरीरं बलं शौर्य शिक्षा च तदुचिता न सामग्री सम्पत्तिः ।
अशिक्षिता हस्तिनः केवलमर्थप्राणहराः । नीतिवाक्यामृत, बलसमुद्देश्य, सूत्र ४-५ । २. अश्त्र बलप्रधानस्य हि राज्ञः कदनकन्दुकक्रीडाः प्रसीदन्ति भवन्ति दूरस्था अि करस्थाः शत्रच आपत्सु सर्वमनोरथ सिद्धयस्तुरंगमा एव शरणमत्रस्कन्दः परानी कभेदनं चतुरंगम साष्यमेतत् । वही सूत्र ८ ।
३. सर्जिका ( स्व ) स्थलाना करोखरा गाजिगाणा केकाणा पुष्टाहारा गारा सादुयारा सिन्धुपारा जात्याश्वानां नवोत्पत्तिस्थानानि । वही, सूत्र १० ।
७८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा