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अर्थात् माधुर्य गुणसे सहित अलङ्कार और रसयुक्त महाकवि महासेनकी सुलोचनाकथा किसके मनका हरण नहीं करती है । धवल कविने भी अपभ्रंशके हरिवंशपुराण में सुलोचनाकथाकी प्रशंसा की है—
मृण महसेणु सुलोयणु जेण, पउमचरिउ मुणि रविसेणेण ।
कुवलयमाला के रचयिता उद्योतनसूरिने भी महासेनकविकी सुलोचनाकथाकी चर्चा की है । यह कथा सम्भवतः प्राकृत में रही होगी । लिखा हैसणिहिय जिणवरिदा धम्मक हा बंधदिविखयणरिदा । कहिया जेण सुकहिया सुलोयणा समवसरणं व ||३९||
अर्थात् जिसने समवशरण जैसी सुकथिता सुलोचनाकथा लिखी, जिस तरह समवशरण में जिनेन्द्र स्थित रहते हैं और धर्मकथा सुनकर राजा लोग दीक्षित होते हैं, उसी प्रकार सुलोचनाकथामें भी जिनेन्द्र सन्निहित हैं और उसमें राजाने दीक्षा ले ली है ।
उद्योतनसूरिने जिनसेन प्रथमसे ५ वर्ष पूर्व अपने ग्रन्थकी रचना की है । अतएव यह निश्चित है कि दोनोंके द्वारा प्रशंसित सुलोचनाकथा एक हो है । महासेनका समय ई० सन्की ८ वीं शताब्दीका उत्तरावं या ९ वीं शताब्दी का पूर्वाधं होना चाहिये 1
आचार्य सुमतिदेव
मल्लिषेणप्रशस्ति में सुमतिदेव नामके आचार्यका उल्लेख है, जो सुमतिसमक के रचयिता है। लिखा है
सुमति- देवममुं स्तुतयेन वस्सुमति - सप्तकमाप्तरायाकृतं । परिहृत्तापथ-तत्त्व - पथात्थिनां सुमति-कोटि-विवर्तिभवात्तिहृत् ॥ १३॥
श्री प्रेमीजीने वादिराजसूरि द्वारा पार्श्वनाथचरित उल्लिखित सन्मति आचार्यको सुमतिदेवसे अभिन्न स्वीकार किया है और इन सन्मतिने सिद्धसेनके संमतिप्रकरण नामक ग्रन्थपर टीका लिखी थी । श्री प्रेमीजीने मल्लिषेणप्रशस्तिमें कुन्दकुन्द, समन्तभद्र सिंह्नन्दि, वक्रग्रीव, वज्रनन्दि और पात्रकेसरीके पश्चात् सुमतिदेवकी स्तुति किये जानेके कारण इनका समय ७ वीं, ८ वीं शताब्दी अनुमानित किया है ।
१. जैनशिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या ५४, पद्य १३ |
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २८७