________________
i
गुरु विश्वभूषणको सच्चारित्र, तपोनिधि, विद्वानोंके अभिमानशिखरक तोड़ने वाला वज्र, स्याद्वादविद्याप्रवीण बतलाया है और लिखा है कि उनके आगे गुरु (बृहस्पति) का गुरुत्व नहीं रहा, उष्णा ( शुक्राचार्य ) की बुद्धिको भी कोई प्रशंसा नहीं ।
स्थिति काल
श्रीभूषण ने संवत् १६३६ में पार्श्वनाथकी एक मूर्ति स्थापित की | वि०सं० १६६० में पद्मावती की मूर्ति, वि०सं० १६६५ में रत्नत्रययन्त्र एवं वि०सं० १६७६ में चन्द्रप्रभु मूर्तिको स्थापना की है । अतएव भट्टारक श्रीभूषणका समय विक्रमकी १७वीं शताब्दी है । इन्होंने शान्तिनाथपुराणकी रचना भी वि०सं० १६६९ में की है।
रचनाएँ
श्रीभूषण की कई रचनाएँ होनी चाहिये। क्योंकि ये अपने युगके बहुत बड़े विद्वान् थे | अभी तक इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-
१. शान्तिनाथ पुराण, २. द्वादशांगपूजा, ३. प्रतिबोधचिन्तामणि ।
१. पुराण
शान्तिनाथपुराण में १६ वें तीर्थंकर शान्तिनाथका जीवनचरित्र वर्णित है । कथावस्तु १६ सर्गों में विभक्त है । शान्तिनाथपुराणमें जो प्रशस्ति दी गयी है उसमें काष्ठासंघके नन्दीतटगच्छके आचार्योकी गुरुपरम्परा समाविष्ट है । इस परम्परामें रामसेनके अन्वयनें क्रमसे नेमिसेन, धर्मसेन, विमलसेन, विशालकीर्ति, विश्वसेन, विद्याभूषण और श्रीभूषणके नाम दिये गये हैं । प्रशस्तिका कुछ भाग निम्न प्रकार है
काष्ठासंघावगच्छे विमलतरगुणे सारनंदीतटांके ख्याते विद्यागणं वै सकलबुधजनैः सेवनीये वरेण्ये । श्रीमच्छी रामसेनान्वयतिलकसमा नेम (म) सेना सुरेन्द्राः भूयासुस्ते मुनीन्द्रा व्रतनिकरयुता भूमिपैः पूज्यपादाः ॥ ४५६ ॥
X
X
X
X
भूषणो
विद्याभूषणपट्टकंजतरणिः श्रीभूषणो जीयाज्जीवदयापरो गुणनिधिः संसेवितो सज्जनैः ॥
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६८२ ।
४४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा